शैक्षिक सिद्धांतो पर प्रतिबन्ध , वर्तमान युवा का विचार शून्य होना तय…

पश्चिम बंगाल के सत्ता पर  ममता बनर्जी का पदार्पण जब से हुआ है एक सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वित किया जा रहा है कि किसी तरह से वामपंथियों के द्वारा बनाई गयी व्यवस्था पर चोट किया जाय  , चाहे जैसे हो।  चाहे विचार पर प्रतिबन्ध लगा कर या फिर प्रशासनिक और राजनैतिक सिद्धांतो  पर प्रतिबन्ध लगा कर।  ताज़ा उदहारण ममता बनर्जी सरकार का शैक्षिणिक पाठ्यक्रम में से कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स और रुसी बोल्शेविक क्रांति पर रोक लगाने कि कवायद शुरू हो गयी है।

ऐसा नहीं है कि यह तुरत फुरत का मामला है, इसके लिए पाठ्यक्रम पुनर्गठन समिति गठित की थी। हालांकि समिति की पूरी रिपोर्ट अभी औपचारिक तौर पर सामने नहीं आई है,मगर इसकी कई सिफारिशों पर विवाद शुरू हो गया है। समिति का सबसे विवादास्पद सुझाव उच्च माध्यमिक कक्षाओं के राजनीति विज्ञान और इतिहास के पाठ्यक्रम से कार्ल मार्क्स, एंजेल्स और रूसी क्रांति को बाहर करने का है। कुछ दिन पहले ममता सरकार ने राज्य के सरकारी पुस्तकालयों में मंगाए जाने वाले अखबारों की नई सूची जारी की थी। इस सूची से उन अखबारों को बाहर कर दिया गया, जो राज्य सरकार की आलोचना करने में संकोच नहीं करते। तृणमूल सरकार के इस फैसले पर भी खासा हंगामा मचा, इसे प्रकारांतर से समाज के जानने के अधिकार को कुंठित करने वाला कदम कहा गया। यह सवाल उठा कि क्या राज्य सरकार ही यह तय करेगी कि क्या पढ़ना चाहिए और क्या नहीं? तब ममता बनर्जी ने खम ठोंक कर कहा था कि हां वे यह बताएंगी कि विद्यार्थी क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें। उनके इस इरादे की झलक भी सामने आ गई है।

लेकिन यहाँ ममता जी को कौन समझाए कि बिना मार्क्स और लेनिन के बिना क्या विश्व राजनीति और सामाजिक अध्ययन कि परिकल्पना की जा सकती है ? या बिना इनके राजनीति विज्ञान और विश्व इतिहास के गूढ़ विचारों को समझना आसान हो सकता है ? पर इसका मतलब यह नहीं कि राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक चिंतन और विश्व के इतिहास में उनके असाधारण योगदान के बारे में पढ़ना गैर-जरूरी मान लिया जाए। अपनी इस पहल के पीछे तृणमूल सरकार की दलील है कि वाम मोर्चा शासन के दौरान बना पाठ्यक्रम असंतुलित था।

जब मै पढ़ाई कर रहा था तब मैंने भी मार्क्स, लेनिन और एंजेल्स को पढ़ा था। इसके बाद विश्वविद्यालयीय स्तर पर उनके सिद्धांतो और दार्शनिक सिद्धांतो का विस्तृत अध्यन किया था। उनके सिद्धांत और विचार वास्तविक राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक सिद्धांतो को समझने और समझाने के लिए आसानी पैदा करते थे। यदि ममता बनर्जी और उनके शिक्षा सलाहकारों के दृष्टिकोण से देखें तो पूरे बंगाल के विद्यार्थी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद,बंकिम चंद चटर्जी,राजा राम मोहन राय,रविन्द्र नाथ टैगोर, सुभाष चंद्र बोस,चारु मजुमदार की जीवनी को पढ़ने के बावजूद,उन जैसा क्यों नहीं बन पाए…? अगर यहीं उन पर काउंटर किया जाय की आज वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में यदि उन महान विभूतियों का अनुकरण करना शुरू कर दिया जाय और व्यवस्था परिवर्तन का बीड़ा उठाया जाय तो क्या ऐसा करने दिया जाएगा ? यदि आज सुभाष चन्द्र जैसा व्यक्तित्व समाज के उत्थान के लिए कार्य करे या फिर राजाराम मोहन राय जैसा व्यक्ति फिर से से समाज में हो रही कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाए तो क्या सरकार उसे ऐसा सरकार विरोधी और भ्रष्ट व्यवस्था विरोधी कदम उठाने देगी। शायद नहींक्योंकि इतने भर से ही सरकारों की सांस फूलने लगती है और आगे की कार्यवाई का आंकलन करने लगती हैं।

यह सही है कि विद्यार्थियों को किसी एक खास विचारधारा का घोल पिलाने का प्रयास नहीं होना चाहिए,बल्कि दुनिया के सभी विचारधाराओं सहित समाज-संस्कृति, राजनीति-इतिहास और धरोहरों से अवगत कराने का भरसक प्रयास के साथ ही मकसद भी होना चाहिए. यह बड़ा ही अफसोसजनक बात है कि ऐसा नहीं हो रहा है.जो भी राजनैतिक पार्टियां सत्ता में आती हैं,वे सभी अपनी मनपसंद का पाठ्यक्रम चलाना चाहती हैं।

अंततः यहाँ यही कहना उचित है की सरकारों का एक तरह से विचारों का यह थोपने वाला काम गैर जिम्मेदाराना और शर्मनाक है। इसके परिप्रेक्ष्य में यदि वास्तविक स्थिति बदलनी है तो आज विद्यार्थियों और शिक्षार्थियों को पढ़ाई के नाम पर खोखला ज्ञान नहीं ,वास्तविक और सैद्धांतिक ज्ञान देने की आवश्यकता है। नहीं तो आने वाले समय में अगर यही शिक्षा पद्धति रही तो युवा केवल सफल मुर्दा ही रहेगा। जहाँ सफल तो अपने कार्यक्षेत्र में रहेगा और मुर्दा अपने समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में ज्ञान के नाम पर कहा जाएगा। जिसमे ज्ञान के नाम पर विवेक शून्यता और विचारहीनता ज्यादा नजर आएगी।

— lakhan saini —

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