आस्था और धर्म के नाम पर होता विश्वास से खिलवाड़…..

भारत में आज एक अध्यात्म ही ऐसी विषय है जो टैक्स फ्री है , और इस चोखे धंधे में प्राफिट भी बहुत है। तभी तो आज देश में न जाने कितने बाबा , महात्मा और मठाधीश इस धर्म रूपी आध्यात्मिक विषय को व्यावसायिक रूप देकर फल फूल रहे हैं। यहाँ की जनता भी ऐसी है जो कम से कम धर्म और आस्था केनाम पर एकजुट हो जाती है |यह धर्म वास्तविक अध्यात्म ज्ञान के रूप में न हो कर चमत्कारिक रूप को लेकर ज्यादा सफल है ,क्योंकि अध्यात्म के  व्यवहारिक ज्ञान की जगह आज बाबाओं का चमत्कार ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। वैज्ञानिको ने

वैसे तो विज्ञान, तकनीक तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसी उद्देश्य को लेकर तमाम उपलब्धियां हासिल की हैं ताकि मानव जाति का विकास हो तथा उसका ज्ञानवर्धन हो सके। टेलीविज़न भी इन्हीं अविष्कारों में से एक है जिसका मकसद विश्वस्तर पर सूचना का आदान-प्रदान करना,ज्ञानवर्धक कार्यक्रम प्रसारित करना,लोगों को शिक्षित व जागरूक करना तथा मनोरंजन करना आदि शामिल हैं।

पिछले करीब एक पखवाड़े से देश में एक धर्म विरोधी बयार चल पड़ी है। जहाँ एक तथाकथित सर्वशक्तिशाली और स्वयंप्रभु बाबा निर्मल के दरबार और उनके तृतीय नेत्र के बारे में लगातार आक्षेप और लगातार फर्जीवाड़ो का पता चल रहा है ,कभी यही बाबा अपने भक्तजनों के लिए कलियुग में साक्षात भगवान् के अवतार हो गए थे। कारण इसका सिर्फ वही की हम केवल चमत्कार में विश्वाश करते हैं और यही चमत्कार हमारे साथ होता था {ऐसा उन बाबा के भक्तो का कहना है } । हमारे टी वी चैनल भी उनके चमत्कारों का लाइव प्रसारण लगातार कर रहे थे। वास्तव में यह भक्ति फैलाने का सबसे बड़ा योगदान हमारे टी वी चैनलों का ही है। परन्तु बाजारवाद की आंधी ने तो लगता है कि इन सभी वैज्ञानिक अपलब्धियों के उद्देश्य को ही बदल कर रख दिया है। आज अधिकांश ऐसे टीवी चैनल जो कि बाज़ारवाद की इस आंधी का शिकार हो चुके हैं वे अपने टीवी चैनल्स के प्रसारण को केवल व्यवसायिक दृष्टिकोण से ही देख रहे हैं। परिणामस्वरूप न केवल टेलीविज़न के आविष्कार का मकसद बदल गया प्रतीत होता है बल्कि यही चैनल्स आम लोगों को गुमराह व पथभ्रष्ट भी करने लगे हैं। इसका कारण शायद केवल यही है कि टीवी कंपनियों को केवल पैसा दरकार है और कुछ नहीं। अब चाहे वह पैसा अशिष्ट कार्यक्रमों के प्रसारणों से आए,सनसनीखेज़ समाचारों से मिले,अभद्र विज्ञापनों के प्रसारण के द्वारा आए पक्षपातपूर्ण प्रसारण से प्राप्त हो या कथित अध्यात्मवाद का दरबार सजाने से आए या फिर पूर्वाग्रही खबरें बेचने से ही क्यों न मिले। टीवी चैनल्स को तो सिर्फ पैसे की ही दरकार रह गई है।

आज हमारे देश में भक्ति और अध्यात्म की बाढ़ सी आ गयी है। आज इस अध्यात्म को हमारे चैनलों ने  सर्व सुलभ बना दिया है। जिस अध्यात्म की खोज में हमारे ऋषि मुनि पहले जंगल पाषाण और कंदराओ में भ्रमण करते थे उसी भक्ति और अध्यात्म को आज सूचना की क्रांति ने व्यक्ति के बेडरूम में प्रवेश करा दिया है | यह भी एक वैश्वीकरण  का ही अंग है |ऐसा नहीं की यह अध्यात्म का उन्नत प्रसार त्वरित प्रक्रिया है गत एक दशक सेतो हमारे देश में इन्हीं टीवी चैनल्स के पूरी तरह सक्रिय होने के बाद तो लगता है भारत में अध्यात्म की गोया बाढ़ आ गई हो। पूरे देश में चारों ओर जहां भी जाईए और जो भी चैनल देखिए उनमें ज्य़ादातर तथाकथित अध्यात्मक गुरू आपको धर्म,अध्यात्म,जीने की कला,स्वास्थ्य तथा राजनीति का घालमेल,योग शास्त्र आधारित उपचार आदि न जाने क्या-क्या परोसते दिखाई देते हैं। इन कथित अध्यात्मिक गुरुओं के समक्ष जो भीड़ बैठी दिखाई देती है उसे देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है गोया पूरा देश ही इन कथित अध्यात्मिक गुरुओं की ही शरण में जा चुका है। निश्चित रूप से यह सब केवल टीवी चैनल्स के प्रसारण का ही कमाल है। बड़े-बड़े धनवान संतों, महात्माओं, आश्रम संचालकों तथा कथित धर्मगुरुओं ने विभिन्न टीवी चैनल्स पर प्रसारण का समय खरीद रखा है। कोई 15 मिनट अध्यात्म का पाठ पढ़ाता है तो कोई आधा घंटा तो कोई एक घंटा। वैसे तो इन टीवी चैनल्स के समय की कीमत चैनल की लोकप्रियता,टीआरपी व टीवी बाज़ार में उस चैनल की अपनी लोकप्रियता पर र्निभर करती है फिर भी मोटे तौर पर एक किश्त के प्रसारण का मूल्य 10 लाख रूपये से लेकर 50 लाख रूपये तक बैठता है। गोया साफ है कि इस प्रकार की अध्यात्म की दुकान टीवी पर सजाने वाले धर्मगुरुओं को अपने प्रवचनों अथवा अन्य कथित अध्यात्मिक प्रसारणों हेतु करोड़ों रूपये खर्च करने पड़ते हैं।

यदि आज हम किसी भी धर्मगुरु की बातें सुनें तो हम देखते हैं कि वह सार्वजनिक रूप से अपने अनुयाईयों को शांति, सद्भाव, प्रेम, गुरु महिमा, धार्मिक रास्ते पर चलने, नामदान जपने तथा उसका आदर करने, अपने गुरुओं के प्रति सच्ची श्रद्धा व गहन आस्था रखने, व्यवसाय में तरक्क़ी करने, पारिवारिक संकट से उबरने, आर्थिक रूप से संपन्न होने, कमाई में बरकत होने जैसी आकर्षक बातें बताता है या फिर इनके उपाय सुझाता है। कई तथाकथित गुरु ऐसे भी हैं जो अपने इन प्रवचनों की कीमत स्वरूप अपने भक्तों से धन भी मांगते हैं, कई गुरु अपने बैंक अकाऊंट नंबर टी वी पर दिखाते हैं तथा उसमें पैसे डालने हेतु भक्तजनों को प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कम से कम मैंने तो आज तक यह नहीं देखा कि किसी आध्यात्मिक गुरु ने अपने प्रवचन को इस बात पर केंद्रित रखा हो कि वह अपने भक्तों को अवैध कमाई करने से रोक रहा हो, भ्रष्टाचार, मिलावट खोरी या रिश्वतखोरी के विरुद्ध प्रवचन देता हो या ऐसा कहता दिखाई देता हो कि हमारे प्रवचन,समागम या हमें भेंट किए जाने वाले पैसों में किसी भी भक्त की किसी प्रकार की अवैध या भ्रष्टाचार की काली कमाई का कोई भी हिस्सा शामिल नहीं होना चाहिए। बजाए इसके ऐसे ही कई कथित बाबा अपनी स्वार्थसिद्धि के चलते अथवा राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता या पूर्वाग्रह के कारण सरकार, शासन व प्रशासन पर ही भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी जैसे मुद्दे पर निशाना साधे रहते हैं या उनकी आलोचना करते रहते हैं। गोया देश में भ्रष्टाचार, हरामखोरी व रिश्वतखोरी जैसे बढ़ते जा रहे नासूर को रोकने के लिए यह ‘गुरुजन’ केवल कानून व सरकार से ही उम्मीदें लगाए रहते हैं अपने भक्तजनों या अनुयाईयों से नहीं।

यह तो हुई आज के समाज की तथाकथित उन्नत भक्ति भावना की जो आशा है आने वाले समय में उन्नता की अपनी पराकाष्ठा को छुएगी लेकिन अगर बात यहाँ पर बाबा निर्मल की करें तो उनके समागम की असलियत सामने आ जाने के बाद अब लगातार उनके भक्तो के सेंसेक्स में भारी गिरावट जारी है। उनके पिछले इतिहास को भी मीडिया द्वारा लगातार खंगाला जा रहा है , और सच्चाईयों को उजागर किया जा रहा है |लेकिन मीडिया के इस रवैये पर यह सवाल भी उठता है की आज के कुछ दिन पूर्व तक जो बाबा उनके लिए एक मोटी कमाई का जरिया थे आज उसी बाबा के पीछे हाथ धो कर पीछे पड़ जाना  कितना न्यायसंगत है। यह तो पुराणों में वर्णित भस्मासुर के कथा का ही अनुकरण कराती है जहाँ भगवान् शिव ने भस्मासुर को  वरदान देकर उसके घमंड को परवान चढ़ा कर उसका अंत भी कर दिया था आज वही कथा दोहराई जा रही है जहाँ इन्ही बाबा निर्मल जीत सिंह नरूला का पहले तो गुणगान किया गया और अब जब चादर पर दाग का पता चला तो मैली चादर को धोने की कवायद शुरू की गयी है।

याद कीजिये जब देश में बाबा के समागम के नाम पर हो रहे धंधे का उजागर हुआ तो बाबा को ढूंढने की कवायद शुरू हुई और इस कवायद में सबसे पहले बाजी मारी देश के सबसे तेज़ रहने का दावा करने वाले विशिष्ट चैनल ने। उस प्राइम टाइम के प्रसारण ने देश में एक नयी बहस को जनम दिया की आखिर बाबा इसी चैनल के साथ  अपना सन्देश देश और भक्तो को संबोधित करने के लिए क्यों प्रगट हुए। क्या पता यहाँ भी कोई तोल मोल न हुआ हो की हे बाबा ! आज तो हमारी लाज रखो प्रगट हो जाओ। इसके बदले में चाहो तो एक हफ्ता और समागम कर लो ,लेकिन हमारे मार्फ़त अपनी बात रख दो सबके सामने।

लेकिन इस भेंट वार्ता में जब उनके कुशल प्रस्तोता ने यह कहा की ज्ञात सूत्रों के अनुसार आपकी ज्ञात आय 85 करोड़ है तो बाबा ने ताल ठोक कर कहा की आप गलत है आपके जानकारी के लिए मै बता दूँ की मेरी आय लगभग 235–240 करोड़ है। और जब बाबा से यह पूंछा गया की आप प्रति भक्त से पैसा क्यों लेते है तो बाबा ने फिर कहा की अगर पैसा नहीं लूँगा तो आप हमें फ्री में थोड़े नहीं दिखाएंगे। यहाँ प्रस्तोता निरुत्तर हो गए।

लेकिन इस सभी बातो से कई बातो का पता चलता है अगर भक्ति भावना का व्यवसायीकरण नहीं हुआ होता तो यह निर्मल बाबा जैसे धर्म के नाम पर दुकान चलाने वाले बाबाओ का पदार्पण न होता जो आज धार्मिक विश्वास का मजाक बना रहे हैं। उन्हें और बढ़ावा दे रहे हैं हमारे लोकतंत्र के चौथे पाए यानी मीडिया। यह वही मीडिया है जो दावा करती है की चौबीस घंटे वह खबर दिखाते हैं लेकिन सच्चाई यह है की खबरों से उनका कोई वास्ता नहीं होता उन्हें सिर्फ चाहिए सेंसेशनल और ऐसे कोई बाबा केसमागम जिसके बल पर वह अपनी व्यावसायिक साख मजबूत कर सकें।

अभिषेक द्विवेदी–

{इण्डिया हल्लाबोल ,दिल्ली }

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