उस रोज मैं इस आस और विश्वाश के साथ देर सर्द रात अपने न्यूज़ चैनल के आफिस में अपने डेस्क पर बैठा था की आज बहुचर्चित और देश से भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए लाये जा रहे इस क़ानून के परिप्रेक्ष्य में कुछ उदार कदम उठाये जायेंगे ,और संसद का उच्च सदन राज्यसभा एक एतिहासिक कार्यवाई का साक्षी बनेगा। लेकिन रात करीब ग्यारह बजे वह घटना हो जाती है जिसकी मैंने या यूँ कहे की हम सभी ने इसकी शायद कल्पना नहीं की होगी, हमारे “माननीय “इस तरीके आचरण कर सकते हैं। एक हैं हमारे राजनीति प्रसाद सांसद हैं बिहार प्रदेश से आर जे डी के। जब देर रात को उनको बोलने का मौका मिला तो शुरुआत का पांच मिनट वो यह तय नहीं कर पाए कि आखिर उन्हें बोलना किस विषय पर है और बोल क्या रहे हैं। आखिर जब बहुत टोकने पर बात पूरी करके बैठे तो ऐसा लगा कि अभी कुछ छूट गया है दो मिनट बाद उन्होंने मंत्री नारायण स्वामी के हाथ से लोकपाल की प्रति लेकर उन्होंने तैश में आकर फाड़ डाली। खैर ऐसा करके उन्होंने इस लोकपाल के पारित होने की दिशा में एक और काला पन्ना जोड़ दिया जिसे देश इनको याद रखेगा।
इस घटना के पहले लोकपाल के मुद्दे पर पूरी विपक्ष ने इस पर जम कर हंगाम काटा और सन्सद ठप तक करवाई। पूरी विपक्ष ने पूरे शीतकालीन सत्र भर सन्सद को वाकयुद्ध भूमि बना दिया था. लेकिन मैं एक प्रश्न यहाँ कर रहा हूँ जो आज विपक्ष का लबादा ओढ़े बैठी है, वह कभी सत्ता के शीर्ष पर भी थी तब उनको यह भ्रष्टाचार नहीं याद आया था, या तब सतयुग था जो उनको चारो ओर सदाचार ही व्याप्त नज़र आता था? तब इस लोकपाल बिल का ध्यान नहीं आया था। जबकि उस समय भी एक से एक कारनामे होते थे। लोकपाल विधेयक के संदर्भ में लोकसभा और राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसे लेकर एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने का इसलिए कहीं कोई मतलब नहीं, क्योंकि देश की जनता ने सब कुछ अपनी आंखों से देखा है और उस तक यह संदेश भलीभांति पहुंच चुका है कि पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों ने लोकपाल विधेयक पारित कराने के मामले में जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण राज्यसभा में संशोधन प्रस्तावों की संख्या लोकसभा में लाए गए प्रस्तावों से दो गुनी हो जाना है। खुद तृणमूल कांग्रेस ने राज्यसभा में करीब तीन दर्जन संशोधन प्रस्ताव रखे। स्पष्ट है कि विपक्षी दलों के साथ सरकार के सहयोगियों ने यह सुनिश्चित किया कि राज्यसभा में उसकी मुश्किलों में इजाफा हो। यदि सरकार ने सुलह का रास्ता अपनाया होता तो शायद सहयोगी दलों और विशेष रूप से सत्ता में साझेदार दलों का रवैया कुछ नरम होता।
जो भी हो, अब किसी भी राजनीतिक दल को यह अधिकार नहीं कि वह लोकपाल के मामले पर खुद को तो पाक-साफ बताए, लेकिन दूसरों को कसूरवार साबित करे। व्यर्थ की यह तकरार बंद होनी चाहिए, क्योंकि सबकी पोल खुल चुकी है। जनता की अदालत से कोई भी बरी होने वाला नहीं है। बेहतर हो कि पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल नए वर्ष में बीती बातें भुलाकर संसद के बजट सत्र के पहले लोकपाल के मुद्दे पर अपने मतभेद दूर करने पर ध्यान दें। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि देश की जनता को जितना मजबूत लोकपाल केंद्र के स्तर पर चाहिए उतना ही मजबूत लोकायुक्त राज्यों के स्तर पर भी। इसका कोई मतलब नहीं कि केंद्र के स्तर पर तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाली व्यवस्था हर तरह से कारगर हो, लेकिन ऐसी कोई अपेक्षा राज्यों के स्तर पर न की जाए। इस मुद्दे पर आम जनता एक और आघात बर्दाश्त नहीं कर सकती।
वैसे इस लोकपाल के मुद्दे पर अब निर्णायक समय आ गया है। अब जनता को बरगलाने का और धोखे में रखने का भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यह पब्लिक है भाई सब जानती है। वैसे भी अभी लोकपाल को बहुत लड़ाई लड़नी है और इस साल सरकार की परेशानिया कम नहीं होंगी। एक तरफ महंगाई ने खटिया खड़ी कर रखी है और चुनाव अलग से सर पर हैं, ऐसे में जनता के सामने उसको अपनी छवि सुधारनी ही होगी।
अभिषेक दुबे
इंडिया हल्ला बोल