“आम जन की बुलंद आवाज से दरकती रही सत्ता की शक्तियां”

जाते जाते यह वर्ष अपने पीछे कई यादों, कई प्रतिमानों के पतन होने के साथ कई अवधारणाओं के खंडन होने का गवाह बना है। यह वर्ष अपने साथ एक ऐसी याद लिए जा रहा है जिसमे एक आम आदमी की आवाज बुलंद होते देखा गया। इस बुलंद आवाज के प्रहार से सत्ता के स्तंभों में कम्पन होते देखा गया। इसी के साथ सत्ता शीर्ष का इस आम और आवामी आवाज के समक्ष नतमस्तक होते देखा गया। यह अलग बात है कि राजनीतिक चरित्र ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।

इस वर्ष के घटनाक्रम में कोई लड़ी नहीं दिखती लिहाजा इसे एक सूत्र में पिरोना भी मुश्किल है। यदि विश्वपटल पर बात करें तो कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि क्या कभी अरब देशों में लोकतंत्र का पुनर्स्थापन कभी हो सकेगा? बिना किसी कद्दावर नेतृत्व के आम आदमी ने अपने हक और हकूक कि लड़ाई लड़ी और निस्संदेह जीती भी। जिसकी वजह से इन देशों में लोकतंत्र कि बासंती बयार आई। असल में यहाँ के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जिस तरीके तानाशाही व्यवस्था ने इसका अधिग्रण किया उसमे इस तरीके के तख्ता पलट आन्दोलन कि कभी कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी। अबतक के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आन्दोलनों के साथ एक विचारधारा का समावेश रहता था, लेकिन अरब देशों की क्रान्ति में इस विचारधारा का अभाव था। एक दृढ़ संकल्प की वजह से आवाम ने गद्दाफी, हुस्नी मुबारक जैसे तानाशाहों से निजात पायी।

इसी तरीके अपने देश के अन्ना आन्दोलन को भी हमने दूसरी आजादी तक का नाम दे दिया था, लेकिन यहाँ मुद्दा अलग था। भ्रष्टाचार की आग ने देश को खोखला कर दिया है। क्या राजशाही, क्या ब्यूरोक्रेसी सब इसकी लपेटे में हैं, अगर इन सभी आन्दोलनों को गौर से देखा जाए तो जनसंचार के माध्यम को एक उपलब्धि ही माना जाएगा। क्योंकि शायद यही एक माध्यम इन आन्दोलनों की सफलताओं का द्द्योतक था।

इसके बाद यह वर्ष आर्थिक रूप से भी एतिहासिक रहा जहाँ शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर से लोगों का विशवास उठते देखा गया। अर्थव्यवस्था का मूल आधार उस पर लोगों का भरोसा होता है पर इस वर्ष पूरी दुनिया में अमेरिकी साख गिरी है।

यहाँ अगर अपने देश की तीन सबसे बड़ी घटनाओं पर नज़र डाले तो सबसे बड़ी और पहली घटना अन्ना आन्दोलन की रही दूसरी पश्चिम बंगाल से वामपंथियों का किला ढहा कर ममता बनर्जी का सत्ता में आना और तीसरी जिस पर कमोबेश ही किसी का ध्यान जाए वह है नक्सलवाद। इसी वर्ष नक्सली नेता किशनजी की मौत पर सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई ,लेकिन यह नक्सलवाद इतनी आसानी से ख़्तम होने वाली समस्या नहीं है। इस समस्या के परिप्रेक्ष्य में कभी किसी ने झाँक कर नहीं देखा होगा और यह नहीं सोचा होगा कि एक गरीब असहाय ही नक्सली क्यों बनता है? अगर हम गहराई से सोचें तो यह हमारी नीतियों का ही लोचा है। आज हमारी सरकार अपनी उन्नत अर्थव्यवस्था, इंडिया शाइनिंग, अतुल्य भारत और न जाने कितने तरीकों से अपने विकसित होने का ढिंढोरा पीट ले लेकिन कटु सत्य यह है कि आज़ादी के पैसठ वर्ष बाद भी हम जहा थे वहीँ पर फिर से हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे देश में किशनजी जैसे नक्सली न बनते और नहीं बुंदेलखंड में कोई किसान भुखमरी से मरता। हमारी सरकार “रोजगार की गारंटी” देती है। यह रोजगार अगर वास्तव में क्रियान्वित हुआ  होता तो नक्सलवाद की समस्या न होती, लेकिन इन सबसे परे हटकर अंत में यही कहा जा सकता है कि खलनायक का अंत, तानाशाह का मिट जाना या फिर आम आदमी का सड़क पर आना महज घटना नहीं है।

इन घटनाओं से साबित हुआ कि एक आस ,एक विशवास और दृढ़ सोच से कोई नेक काम ठान लिया जाए तो वह अधुरा नहीं रहता |

अभिषेक दुबे

इंडिया हल्ला बोल

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