लोकतंत्र में हिंसात्मक विरोध, "सही या गलत"

दस दिन के भीतर की राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डाले तो ये देखने को मिला की एक लोकतान्त्रिक देश में विरोध का चेहरा कितना अलोकतांत्रिक रहा। पहले पूर्व केंद्रीय दूरसंचार  मंत्री सुखराम फिर वर्तमान केंद्रीय मंत्री शरद पवार पर एक ही व्यक्ति द्वारा किया गया विरोधरुपी हमला वास्तव में गैर जनतात्रिक और निंदनीय है। हमारे संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं माना जाता। हांलाकि इसी संविधान में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का भी प्राविधान है, परन्तु इस स्वतंत्रता को हिंसा का रूप देना अक्षम्य है लेकिन इन सबसे अलग हटकर यदि हम आम मानवीय सोच को आधार बनाकर सोचे  तो हरविंदर सिंह के रूप में ये आम आदमी का विरोध था जो सुखराम और शरद पवार के सामने इसका स्वरुप देखने को मिला। पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम अपने संचार मंत्रालय के कार्यकाल के १५ वर्ष पूर्व किये गए गए घोटालो को लेकर ये तो जानते थे की देर सबेर उन्हें सलाखों के  पीछे जाना पड़ेगा,ये बात अलग है की उन्हें अब जमानत मिल गयी  लेकिन इसका उन्हें कदापि भान भी न रहा होगा की उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें ये थप्पड़ रुपी जलालत भी झेलनी होगी। यही हाल मराठा क्षत्रप शरद पवार का भी हुआ। महाराष्ट्र के कद्दावर नेता और एन .सी .पी अध्यक्ष को मारा गया ये थप्पड़ उनके संपूर्ण राजनैतिक करियर का सबसे बुरा लम्हा बना, और उन्हें हिला कर रख दिया।

इस प्रकार की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में अब लगता है की राजनीति में विरोध के इन् हथियार ने अपनी पहचान बना ली है। चाहे वो लखनऊ में अन्ना टीम के लेफ्टिनेंट अरविन्द केजरीवाल को लेकर हुआ हो या दिनदहाड़े सुप्रीम कोर्ट परिसर में प्रशांत भूषण से की गयी मार पीट हो। इस प्रकार की आम जनता के राजनितिक विरोधों का कोई ठोस परिणाम निकलता नहीं दिखाई देता। इसके लिए यदि हम उस तथाकथित हरविंदर सिंह को राष्ट्रीय नायक घोषित कर देते हैं तो ये एक असंवैधानिक कृत्य ही होगा।

इन सबसे अलग हटकर यदि मानवीयता के आधार पर इसकी समीक्षा करते हैं तो ये बात सामने आती है की “जनता के ये प्रतिनिधि जिस जनभावना के विश्वास को जीत कर संसद में आते हैं ,यदि उसी  जनभावना की मर्यादा को ध्यान में रखकर अपने कार्यकाल को जनहित में लगाएँगे तो निश्चित रूप से इस प्रकार की घटनाओ की पुनरावृत्ति की नौबत नहीं आएगी।”

अभिषेक द्विवेदी

इंडिया हल्ला बोल

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