जनभावना को ठेस पहुँचाता प्रदेश खन्डन का प्रस्ताव…

हिन्दी पखवाडे के बदलाव के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीतिक गलियारो में भी उठापटक शुरु हो गयी है। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश की विधानमंडल में शोरगुल के बीच जो कुछ हुआ, वह निहायत ही गैर-जनतांत्रिक औऱ अलोकतांत्रिक रहा। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य हैं, जो केन्द्र की सत्ता का मार्ग प्रशस्त करता रहा हैं। यह प्रदेश भारतीय राजनीति में अलग ही स्थान रखता है। चाहे लोकसभा या विधानसभा की सदस्यता औऱ संख्या बल को लेकर हो या फिर यहां की जनसंख्या को लेकर हो। फिर भी इन सबको एक तरफ रखकर यादि सिर्फ राज्य पुर्नगठन की बात करे तो यह सिर्फ चुनावी फंडा ही लगता है। वास्तव में यह प्रदेश की बीस करोड़ की जनभावनाओ के साथ खिलवाड़ है। यह उन जनप्रतिनिधीयो का अपमान है जो अपने क्षेत्र का सदन मे प्रतिनिधित्व करते है। राज्य के पुर्नगठन के संदर्भ में शीतकालीन सत्र के पहले दिन की कार्यवाई विधानसभाध्यक्ष के गैरजिम्मेदराना रवैया का परिणाम है। विधानसभा के अध्यक्ष का कार्य वास्तव में निष्पक्ष कार्यवाही पूर्ण कराने का होता है। जिसमे कोई भी बिल या प्रस्ताव पारित करने के पहले उस मद्दे पर व्यापक बहस होना आवश्यक माना जाता है। जरुरत पडने उसमें मतदान की प्रक्रिया भी कराई जा सकती है, लेकिन यहां जो भी हुआ वह पूर्व-नियोजित ही लगता है। क्योकि प्रमुख बिपछी दल ने जिस तरह से सरकार को घेरने के लिए अविश्वास प्रस्ताव की मांग की थी, उससे सरकार पहले ही पार हो जाना चाहती थी, तभी तो उस अविश्वास प्रस्ताव को लेकर बिपक्षी दल सिर्फ हो-हल्ला ही मचाते रहे,और इधर महज औपचारिकता ही मानकर प्रदेश की मुखिया ने सिर्फ चंद-मिनटो में अगले वर्ष के लेखानुदान और राज्य पुर्नगठन का प्रस्ताव धवनिमत के साथ पारित करवा लिया। शायद यह अबतक उत्तर प्रदेश के सदन की सबसे (ऐतिहासिक काली) कारवाई थी। राज्य के बंटवारे के संदर्भ में मायावती ने जो कहा कि (छोटे राज्य विकास के द्दोतक होते है) यह बात आज के समय से इत्तफा़क नही रख पाती। अगर ऐसा होता तो उत्तराखंड,झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि राज्य विश्वपटल पर अपनी पहचान बना लिए होते।

झारखंड जैसे राज्य का उदारहण देते हुऐ मायावती यह भूल गयी की यह वही राज्य है, जहां आज ग्यारह वर्षो एक भी सरकार अपनी कार्यकाल पुरा नही कर पायी….

राज्य पुर्नगठन जैसा संबेदनशील एव जटिल प्रस्ताव पर अमल करना कोई आसान बात नही है। जिन छोटे-छोटे राज्यो को एकत्रित करके आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल ने एक अखंड़ भारत की नीव रखी थी, तो उन्होने कदापि यह नही सोचा होगा कि यह अखंड़ भारत अपने आजादी के सौ वर्ष भी पुर्ण नही कर पायेगा। इस प्रकार किसी राज्य को बाँट देना वहा की जनभावना को ठेस पहुँचाने से बढकर कुछ नही है। खासकर तब जब प्रदेश में चुनाव का बिगुल बज चुका हो। बात तो तब होती जब यही प्रस्ताव शसन के शुरुआती समय में लाकर केन्द्र पर दबाव बनाय गया होता। फिर भी मायावती ने प्रदेश विभाजन की जो राजनीतिक चाल चली वह जातिगत राजनीत से ही प्रेरित जानपडती है।

अंततः यही कहा जा सकता है कि आज की राजनीति में यादि अपना देश,अपना प्रदेश को आधार बनाकर राजनीति की जाये, जहां देश के परिप्रेक्ष्य में देश का हित सर्बोपरि हो और प्रदेश में दलगत,जातिगत, से उपर उठकर और धर्मनिरपेक्ष होकर प्रदेश को आगे ले जाने का मुद्दा उठाते है तो यह अपने आप में निश्चित रुप से एक कीर्तिमान स्थापित करेगा।

अभिषेक व्दिवेदी

लखनउ (इंडिया हल्ला बोल)

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