भ्रष्टाचार से लडने के लिये नैतिकता जरूरी

द्वितीय विश्व युद्ध 1940-42 के दौरान, भारत में अंग्रेजी हकूमत ने सबसे पहले भ्रष्टाचार को कानून के अन्तर्गत लाकर स्पेशल पोलिस एस्टेवलिशमेंट एक्ट के तहत, युद्ध के दौरान वार एसंड सप्लाई विभाग में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक एजेंसी का गठन किया। उसे कालातंर में सीबीआई का नाम दिया गया। भ्रष्टाचार उससे पहले भी किसी ना किसी रूप में मौजूद था। सत्तर के दशक में भारत के शीर्षस्थ नेताओं ने एक बार नहीं कई बार यह बात कही कि भ्रष्टाचार एक अर्न्तराष्ट्रीय समस्या है या यूं कहें कि मुद्दा है। यानि भ्रष्टाचार एवं ग्लोबल अर्थात वैश्विक प्रक्रिया है।

मौजूदा आर्थिक सुधारों और ग्लोबलाईजेशन के आने से पहले हमने भ्रष्टाचार को संसारिक चलन का दर्जा दिया था और अपने कार्य व्यवहार से उसे दर्जे से नीचे नहीं आने दिया। यहां याद दिला दें कि 1991 में नरसिंहराव सरकार की नींव में भ्रष्टाचार की ईंटे रोपी गई थी, अनेक सांसदों को रिश्वत देकर समर्थन हासिल कर सरकार चली। बाद में भ्रष्टाचार का मुकदमा पूर्व प्रधानमंत्री पर चला, निचली अदालत से 3 वर्ष की सजा हुई परन्तु बडों के सामने पेश हुए तो छोड दिये गये। घूस माने या ना माने पर उच्च न्यायालय में बहस हुई, तय हुआ कि संसद सदस्य घूस ले सकते हैं सभी आरोपी बरी हुए। ऐसा नहीं है कि समाज में भ्रष्टाचार की तारीफ की गयी हो पर उसको ऐसी बीमारी मान लिया गया जो लाइलाज तो है ही साथ में राजनीतिक – सामाजिक जीवन के लिए अपरिहार्य भी है।

वैसे समय गवाह है कि काम निकलवाने के लिए आदिकाल से चाहे वो राजशाही हो , जागीरदार, कबीलादारी हो या साहूकार, व्यक्ति नतमस्तक होकर नजराने के रूप में कुछ न कुछ भेंट देता रहा है। नजराने की यह परम्परा रिश्तेदारों, मित्रो के नीचे भी रही है। खाली हाथ जाना बुरा माना जाता है और अगर किसी कार्यवश गये तो नजराना चाहिए ही। यह बात हुई समाज में व्याप्त तौर तरीको की जो भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं। पर क्या हम वास्तव में भ्रष्ट समाज के अंग बनना पसंद करते हैं। उत्तर स्पष्ट है, नहीं। तो फिर यह भ्रष्टाचार समाज के अंदर इतना गहरा कैसे बैठ गया है। इसकी जड में क्या है ? हम भ्रष्ट क्यों बनते हैं या दूसरे को भ्रष्ट बनाने में क्यों सहयोग करते हैं ? मात्र लोभ-लालच जैसी दुष्प्रकृति इस बिमारी की जड में नहीं है। यह तो समाज में अपना आर्थिक दबदबा और उंचा स्थान बनाने का साधन बन गया है। भ्रष्ट हैं तो इज्जत है, भ्रष्ट तरीके अपनाऐं तो सारे रूके काम बन जाते हैं, परिश्रम का पसीना नहीं बहाना पडता, जीवन सुखमय हो जाता है। साख बनती है, यश, एश्वर्य की प्राप्ति होती है और इतना सब पाने के बाद किसी की हिम्मत नहीं होती कि वह अपने को समाज के सामने भ्रष्ट करार दे या आपसे सम्बन्ध तोड ले, वरन प्रगाढता आती है। फिर निष्कर्ष यह निकलता है कि आज के समाज में भ्रष्ट होना मुनाफे का काम हैं क्यों ना चुने भ्रष्टाचार का रास्ता और मांग करें कि भ्रष्टाचार को खुली छूट दे दी जाये। परन्तु आज के समाज में यहां भी मोनोपोली रोने वाले तत्व विद्धमान है। धन और धाक का एकाधिकार सुरक्षित रखने के लिए कानून और समाज के ठेकेदारों ने ऐसी व्यवस्था बनायी है कि सभी भ्रष्ट ना बन सकें । यह अधिकार कुछ गिने चुने लोगों का ही है जो भाग्यशाली हों। यानी भ्रष्ट लोगों के मुकाबले भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता कि गिनती ज्यादा होनी चाहिए।

आईये अब कुछ आकंडों की बात करें। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया नामक संस्था के अुनसार भारत 178 भ्रष्ट देशों में से 87 वें पायदान पर है, यानी भारत अकेला नही वह विश्व के अनेक मुल्कों में से एक है। पूर्व सी वी सी प्रत्यूष सिहा ने कहा कि भारत में तीन में से एक भारतीय भ्रष्टाचार के रास्ते को चुनता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि राष्ट्र की तरक्की में भ्रष्टाचार अवरोध पैदा करता है उन्होंने इसको भविष्य के लिए खतरनाक बताया परन्तु कैसे भ्रष्टाचार को खत्म करें उपाय नहीं सुझाए। मात्र कुछ एजेंसियों विशेषतः पुलिस, सीबीआइ, सीवीसी पर जिम्मेदारी डालकर पल्ला झाड लिया। ये सभी एजेंसियां भ्रष्ट तंत्र का स्वयं हिस्सा हैं, तो कैसे रूकेगा भ्रष्टाचार। चूंकि लगभग सभी संस्थाए स्वयं को पावरलैस मानती हैं । लोकायुक्त के अधिकार भी सीमित हैं। वह भी राजनीति के माध्यम से पद की प्राप्ति करता है। सुप्रीम कोर्ट बार-बार पुलिस रिफार्म की बात उठाता हैं। कानून को सख्त बनाने पर जोर देता है, एजेंसियों की स्वायत्ता की बात करता है। परन्तु नतीजा ढाक के तीन- पात ही रहता है।

हम अपने समझ मूल प्रश्न पर आते है। तीन प्रतिशत भ्रष्ट 70 प्रतिशत जनता का दोहन कर रहे हैं। यानि एक अलिखित व्यवस्था चल रही है जिसके अर्न्तगत समाज और देश के कर्णधार जिनमें व्यापारी भी शामिल हैं भ्रष्टाचार को वैकल्पिक प्रक्रिया मानकार प्रस्थापित करा कर हर जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड लेना चाहता है। इसी लक्ष्य पूर्ति के लिए लचर कानून बनाये गये ताकि भाग्यशाली भ्रष्ट लोगों को जिन पर हजारों सैकडों करोडों रूपये का घोटाला करने का आरोप तो लगाया जा सके या असीमित समय सीमा तक फाईल को दबाया जा सके। उदाहरण के तौर पर बोफोर्स में फंसे लोग, देश के सबसे बढे व्यापारी घराने के बंधुओं द्वारा आर्थिक व्यस्था को चकनाचूर कर मनमानी, अनेक पूर्व एवं वर्तमान मंत्री, सांसद, विधायक, व्यापारी, जिनकी फेहरिस्त सबको ज्ञात है परन्तु ना तो लेखनी काम करती है ना जुबान खुलती है। इस लेखक को जिसने पूरी व्यवस्था को बहुत नजदीक से देखा है। कुल मिलकार लगभग एक हजार महान व्यक्ति भ्रष्टाचार से सम्मानित हैं जिनपर देश को, व्यापार कर्ज, समाज को नाज है। इसके विपरीत 10 रूपये से लेकर लाख तक की घूस लेने वाले अक्सर कभी न कभी पकड में आ ही जाते हैं और सजा पाते हैं। यह है वर्तमान व्यवस्था की विडम्बना।

इंडिया हल्ला बोल 

 

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