The Importance of Mythology : पुराण भारत की बहुत ही प्राचीन पुस्तके हैं। सनातन धर्म का आधार पुराण हैं, पुराणों का निर्माण लोगों की भलाई के लिए किया गया था। पुराणों में हमे धर्म, आचार, विचार, संस्कृति, कर्म-कांड, शास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि का वर्णन मिलता है। सही मायने में देखा जाए तो पुराण में ही भारतीय संस्कृति का आधार है। वस्तुत : पुराण 18 होती हैं। जिनमें त्रिदेवों की महानतम शिक्षाओं को अंकित करके हमे सरल भाषा में समझाया गया है।। आइये जानते हैं पुराण का अर्थ।। ‘पुराण’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘प्राचीन आख्यान’ या ‘पुरानी कथा’ ।
‘पुरा’ शब्द का अर्थ है – अनागत एवं अतीत। ‘अण’ शब्द का अर्थ होता है -कहना या बतलाना। रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है “पुराण पत्रापग मागन्नतरम्” एवं वैदिक वाङ्मय में “प्राचीन: वृत्तान्त:” दिया गया है।सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दू संस्कृति के वे विशिष्ट धर्मग्रंथ जिनमें सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास-वर्णन शब्दों से किया गया हो, पुराण कहे जाते है। पुराण शब्द का उल्लेख वैदिक युग के वेद सहित आदितम साहित्य में भी पाया जाता है अत: ये सबसे पुरातन (पुराण) माने जा सकते हैं।
अथर्ववेद के अनुसार पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था। शतपथ ब्राह्मण में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् ने भी पुराण को वेद कहा है। बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि “इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबर्हयेत्” अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये।
इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।अमरकोष आदि प्राचीन कोशों में पुराण के पांच लक्षण माने गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियां), मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और वंशानुचरित (सूर्य चंद्रादि वंशीय चरित) ।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥
(1) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(2) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(3) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन,
(4) मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
(5) वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन ।
माना जाता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। प्राचीनकाल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों – सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण मनुष्य को धर्म एवं नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। पुराण मनुष्य के कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें दुष्कर्म करने से रोकते हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं। वेद संस्कृति भाषा में लिखे हुए हैं जिन्हें आज भी समझ पान बहुत जटिल है, इसलिए वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की।
कहा जाता है, ‘‘पूर्णात् पुराण ’’ जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण (जो वेदों की टीका हैं)। वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं। पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है। पुराणों में त्रिदेवों के सभी अवतारों का वर्णन मिलता है। इन अवतारों का मुल उद्देशय धर्म की स्थापना करना होता है। पुराणों में हमें उनकी अनमोल शिक्षा का लाभ मिलता है जिसे अपनाकर हम तर सकते हैं।
निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना पुराणों का परम विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है।
पुराणों में सत्य को प्रतिष्ठित में दुष्कर्म का विस्तृत चित्रण पुराणकारों ने किया है। पुराणों का मुल उद्देश्य है कि लोगों को धर्म की शिक्षा मिलती रहे ताकि वे सही रास्ते पर चलकर अपने को परमात्मा के समीप लाकर के मोक्ष प्राप्त कर सकें। आज के समय के अनुसार हमें पुराणों को पढ़ने का समय नहीं मिलता है, पर हमें समय निकालना चाहिए और भारतीय संस्कृति को पढ़ना चाहिए।