बलात्कारी संस्कृति के लिए दोषी कौन?

मित्रों,जब मैं बच्चा था तब अक्सर देखा करता था कि बकरी का नर बच्चा अक्सर अपनी सहोदर बहनों और जन्मदात्री माँ के साथ सेक्स संबंध बनाने को उतावला हो उठता था। तब मैं सोंचता था कि क्या भविष्य में हम भारतीयों की भी यही स्थिति होनेवाली है? भारतीयों की इसलिए क्योंकि तब तक पश्चिम के समाज के बारे में मैं सुन-पढ़कर जान चुका था वहाँ इहलोकवाद का तूफान काफी समय से चल रहा है और वहाँ का समाज जानवरों के समाज की तरह काफी हद तक सेक्स-फ्री हो चुका है।

मैं सोंचता था कि क्या भविष्य में विश्वगुरू भारत में भी शरीर और सेक्स-संतुष्टि का महत्त्व इतना ज्यादा हो जाएगा कि सारे रिश्तों की गरिमा तार-तार कर दी जाएंगी? दुर्भाग्यवश वह समय बहुत जल्दी और मेरे अनुमान के विपरीत मेरी जिन्दगी में ही आ गया है। आज जब भी मैं समाचार-पत्रों में पढ़ता हूँ कि गुरू ने शिष्या का यौन-शोषण या बलात्कार किया,आज जब भी किसी पिता की खुद अपनी ही बेटी के प्रति हैवानियत की खबरें देखता या पढ़ता हूँ तो मुझे वह बचपनवाला बकरी का बच्चा याद आ जाता है। आखिर क्यों हुआ ऐसा और हुआ भी तो इतनी तेजी से क्यों हुआ? क्यों इतनी जल्दी हम भारतीयों की ईन्सानियत मर गई? ज्यादा नहीं पचास साल पहले का भारत तो बिल्कुल भी ऐसा नहीं था।

मित्रों,दरअसल पिछले पचास सालों में हमारा समाज काफी कुछ बदला है। हमारे समाज ने इन पचास सालों में पहले थियेटरों/सिनेमाघरों में फिल्मों को देखा,फिर रेडियो पर मादक फिल्मी गीतों को सुना,फिर टेलीवीजन ने हमारे घरों को ही सिनेमाघर बना दिया और उल्टे-सीधे धारावाहिक दिखाए और अंत में आया इन्टरनेट जिसने अश्लील वीडियो-फिल्मों को पहले घर-घर और फिर मोबाईल-मोबाईल तक पहुँचा दिया। पिछले पचास सालों में वैज्ञानिकता के नाम पर सरकारी प्रचार-माध्यमों और सरकारी पाठ्यक्रमों ने हमारी धार्मिक मान्यताओं पर मरणान्तक प्रहार किया और लोगों की धार्मिक-आस्थाओं की ऐसी की तैसी कर दी। हम भूल गए आईन्सटीन की चेतावनी को कि बिना धर्म के विज्ञान अंधा होता है। हम भूल गए कि विज्ञान हमारे जीवन को आसान बना सकता है लेकिन नैतिक-मूल्यों के प्रति हमारे मन में आस्था उत्पन्न नहीं कर सकता।

आज का औसत भारतीय परलोक की बिल्कुल भी चिन्ता नहीं करता और उसके लिए अगर पैसा ही भगवान हो गया है,तो क्यों? क्यों आज का भारतीय न तो ईश्वर को मानता है और न ही उससे डरता है? क्योंकि पहले तो हमने भारतीय-विश्वास और अध्यात्म की धज्जियाँ उसको विज्ञान की कसौटी पर कसकर उड़ा दीं (जबकि आस्था विश्वास करने की चीज है न कि तर्क या विज्ञान की कसौटी पर कसने की) और जब हमारे देशवासियों के दिमाग से परलोकवाद और ईश्वर निकल गया या उसका प्रभाव कमजोर पड़ गया तब हमने उसमें अश्लीलता भर दी। इतना ही नहीं हमारी सरकारों ने कथित रूप से खाली खजानों को भरने के लिए जनता के हाथों में शैतान का पर्याय शराब की बोतलें भी पकड़ा दीं। पीयो और खुद को भी भूल जाओ। भूल जाओ सारे रिश्तों की अहमियत को,भूल जाओ कि तुम एक ईन्सान हो।

मित्रों,आज जबकि रह-रहकर बलात्कार की दिलो-दिमाग को हिला देनेवाली घटनाएँ सामने आने लगी हैं तो हम अपने दिमाग के कार्बुरेटर में आ गए कचरे को साफ करने की बात नहीं कर रहे और सतही या बाहरी उपाय करने में लगे हैं। हम बसों के शीशों का रंग बदलने की बात कर रहे हैं और बसों से पर्दा हटाने का आदेश दे रहे हैं। हम अति हास्यास्पद तरीके से कभी बलात्कारियों को फाँसी देने की मांग कर रहे हैं तो कभी रात में चलनेवाले बसों में बल्ब जलाए रखने का निर्देश दे रहे हैं। मैं पूछता हूँ कि ऐसे तुगलकी आदेशों का अक्षरशः पालन करवाएगा कौन? मैं पूछता हूँ कि क्या वर्तमान भारत में सिर्फ बसों में ही बलात्कार किए जा रहे हैं? अगर कोई बाप अपनी बेटी या कोई भाई अपने बहन की अस्मत पर खुद ही हाथ डालता है तो क्या उसे हमारी कोई भी सरकार या कानून रोक सकता है? क्यों आज हमारी बहनों को सबसे ज्यादा खतरा खुद के घर में ही है? क्यों जनता की जान-माल और अस्मत की रक्षा के लिए बनाए गए थानों में ही सबसे ज्यादा बलात्कार की घटनाएँ होती हैं? क्या इन सवाल पर कभी हमारे सिरफिरे राजनेताओं और नीति-नियंताओं ने विचार किया है? क्या उन्होंने कभी गंभीरतापूर्वक विचार किया है कि क्यों आज का औसत भारतीय ईन्सान से जानवर बनता जा रहा है और इस नैतिक गिरावट को कैसे रोका जा सकता है?क्या उनके दिमाग ने कभी इस बात पर चिन्तन किया है कि ऐसे क्या उपाय किए जाने चाहिए जिससे ईन्सान के बच्चे और बकरी के बच्चे के बीच का अंतर पुनर्स्थापित हो सके?

मित्रों,यदि वे लोग ऐसा नहीं सोंच रहे हैं तो फिर मुझे बड़े दुःख के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि निकट-भविष्य में बलात्कार की घटनाएँ रूकना तो दूर कम भी नहीं होनेवाली हैं। अगर हम शिक्षा-प्रणाली सहित हर बात में पश्चिम का अंधानुकरण करेंगे तो हम भारत को ऐसा विचित्र भारत बनाकर रख देंगे जिसे भारत का कोमल हृदय कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। कहना न होगा कि अगर हम एक आम भारतीय को फिर से जानवर से ईन्सान बनाना चाहते हैं तो हमें अपने बच्चों को एक बार फिर से वेदों और उपनिषदों की शिक्षा देनी पड़ेगी। एक बार फिर से यम,नियम,योग और ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाना पड़ेगा। उनको शंकर के मायावाद,अद्वैतवाद और रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद की शिक्षा देना होगी।

हमें उनके दिलो-दिमाग में फिर से अपनी महान संस्कृति और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था पैदा करनी पड़ेगी। अगर सरकारी स्कूलों में ऐसा पाठ्यक्रम लागू करने में हमारे नेताओं की कथित धर्मनिरपेक्षता बाधा बनती है तो उतार फेंकना होगा ऐसी भारतीयता व मानवता-विनाशक कथित धर्मनिरपेक्षता को तभी हम फिर से एक आम भारतीय को पशु से मानव और मानव से देवता बना पाएंगे और कविवर आरसी प्रसाद सिंह की तरह सिर उठाकर गा सकेंगे कि-हमारा देश भारत है नदी गोदावरी गंगा,लिखा भूगोल ने जिस पर हमारा चित्र बहुरंगा। जहाँ हर बाग है नंदन,जहाँ हर पेड़ है चंदन;जहाँ देवत्त्व भी करता मनुज के पुत्र का वंदन,मनुज के पुत्र का वंदन,मनुज के पुत्र का वंदन।।।

ब्रजकिशोर सिंह

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