हिंदी को भी अन्ना का इंतजार

हिंदी पखवाड़े की धूम है। हिंदी को लेकर साल भर तक नाक-भौं सिकोड़ने वालों की जुबान बदल गई है। खासतौर पर सरकारी दफ्तरों में गोष्ठियों और सेमिनारों की धूम है। पूरे साल तक कोने में बैठे उंघता-सा दिखता रहा राजभाषा विभाग इन दिनों जा गया है। वैसे पूरे साल सोने और उंघने की ड्यूटी निभाते राजभाषा विभाग को 1951 से ही हिंदी पखवाड़े में जागने की आदत है। हर साल वह संकल्प भी लेता है। अपने कुछ चहेते साहित्यकारों या साहित्य के नाम पर तुकबंदी करने वालों को उपकृत करने का मौसम भी होता है हिंदी पखवाड़ा। लिहाजा लोकप्रिय किस्म के कवियों को बुलाकर उन्हें शॉल-श्रीफल पकड़ा कर उनसे चार-छह कविताएं सुन ली जाती हैं। दफ्तर के दूसरे मित्रों को इसी बहाने तफरी का एक मौका और मुफ्त में चाय-समोसे और बरफी भी मिल जाती है। नाश्ते के साथ मनोरंजन…का जोरदार आइडिया चलता रहता है। इस तरह हिंदी दिवस और उसका पखवाड़ा इस साल भी बीत जाएगा…कुछ लोगों की इसी बहाने हजार-पांच सौ की कमाई भी हो जाती है। इस साल भी हो रही है…हिंदी विभाग के बाबुओं की जेब में भी कुछ तियन-तरकारी लायक पैसे बचे रह जाते हैं। कुल मिलाकर इस साल भी वैसा ही नजारा है…अपने राम को किसी ने अब तक कहीं बुलाया नहीं तो भाई…अपने को जलन भी होती है….लोग बोलते-ठालते भी रहते हैं कि क्या सालो भर हिंदी-हिंदी किए रहते हो और जब मौका आता है तो तुम कहीं दिखते भी नहीं। हिंदी की याद न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका तक, सरकारी बैंक से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों तक हर जगह पूछ होती है। लेकिन वहां याद आते हैं हिंदी का सार्वजनिक नुकसान करने वाले …समोसे भी वही खाते हैं …छोटी-मोटी थैली भी वही पाते हैं और हिंदी का सार्वजनिक क्रियाकर्म करके चले जाते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र इसीलिए हिंदी पखवाड़े को हिंदी का श्राद्ध पखवाड़ा और हिंदी दिवस को हिंदी का श्राद्ध दिवस बताते हैं। यह संयोग ही है कि इन्हीं दिनों हिंदुओं का पितृपक्ष भी चल रहा होता है या आने वाला होता है। कहना न होगा हिंदी पखवाड़े पर इसकी छाप पूरी तरह देखी जाती है।

लेकिन सवाल यह है कि यह श्राद्ध पर्व कब तक मनाया जाएगा…क्या इस श्राद्ध पक्ष को बंद करने के लिए कोई अन्ना हजारे पहल करेगा। सवाल तो यह भी है कि हिंदी विमर्श की दुनिया इस श्राद्ध पक्ष के अपने वैचारिक विरोध को मूर्त रूप क्यों नहीं देती। क्यों? उसे किसी अन्ना हजारे का ही इंतजार है…इन सवालों के जवाब बड़े कड़वे हैं…दरअसल विमर्श की दुनिया भी खुद के अंदर एक तरह से उठाने-गिराने के खेल में इतनी मसरूफ है कि उसे असल चिंताओं के लिए फुर्सत नहीं…फिर हिंदी अधिकारियों या राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति का खेल इसी कथित विमर्श वाली दुनिया के जरिए चलता है। ये विभाग और उनसे जुड़े पद इन विमर्शी दुनिया के लिए खेल का मैदान और हथियार भी हैं…मुर्गा और दारू का इंतजाम कई बार ये मैदान और हथियार ही मुहैया कराते हैं…लिहाजा इन विभागों का जिंदा रहना और उनके कारिंदों का बना रहना कथित बौद्धिक ताप और विमर्श की दुनिया के लिए भी जरूरी है। ये विभाग और पद रहेंगे, तभी किसी नामचीन और किसी अधिकारी संस्कृति कर्मी की चलती रहेगी..तभी वह उपकृत करने की भूमिका में बना रहेगा और तभी उसकी कथित हिंदी की सत्ता चलती रहेगी…लेकिन इस तंत्र के जरिए हिंदी का विकास कैसे होगा…जनभाषा हिंदी को विमर्श की दुनिया की ताकतवर भाषा कैसे बनाया जा सकेगा…सबसे महत्वपूर्ण सवाल इन दिनों यह है और इसका जवाब तलाशा जाना चाहिए। विदेशी कारपोरेट ने दिखा दिया है कि जरूरत पड़ने पर वह साठ करोड़ लोगों की इस भाषा को अपने लिए इस्तेमाल कर सकता है और उससे अपने व्यापारिक-व्यवसायिक हित भी साध सकता है…उसने साधा भी है…बाजार में लगातार बढ़ती हिंदी की उपस्थिति इसका गवाह है…लेकिन क्या विमर्श की दुनिया …नीतियों का संसार ऐसा दावा कर सकता है…जवाब इसका निश्चित तौर पर ना में हैं…तो क्या हमारी मजबूरी अपनी भाषा को विमर्श के गलियारे तक पहुंचाने के लिए किसी अन्ना हजारे का ही इंतजार करना पड़ेगा…फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली के सियासी गलियारे शुरू से ही अपने लोगों की भाषाओं में उठने वाले सवालों को नजरंदाज करते रहे हैं…हिंदी भले ही राजभाषा का दर्जा पा गई…लेकिन नीतियां और विमर्श बनाने-करने वालों में अब भी हिंदी की आवाज नहीं सुनी जाती…वहां सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी चलती है…लेकिन अन्ना ने अपने 12 दिनों के अनशन के दौरान दिखा दिया कि अगर संकल्प हो तो विमर्श और नीति बनाने वालों को भी अपनी भाषा में बात करने के लिए नाक रगड़कर आना होगा…प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मराठी नहीं जानते ..लेकिन अन्ना को शुक्रिया बोलने के लिए मराठी में चिट्ठी उन्हें भी भेजनी पड़ी…अन्ना की टूटी-फूटी हिंदी पूरे देश को जोड़ने का माध्यम बन गई…जो लोग दक्षिण और पूर्वोत्तर इलाकों में हिंदी विरोध की आंच महसूसने का दावा करते रहे हैं…और इसी नाम पर हिंदी को परे टरकाते रहे हैं…उनसे पूछा जाना चाहिए कि चेन्नई और त्रिवेंद्रम के लोगों के सिर पर सजी अन्ना की टोपी क्या तमिल-मलयालम या अंग्रेजी के संदेशों के जरिए शुरू हुई थी…नहीं पूरा देश अन्ना की टूटी-फूटी मराठी प्रभाव वाली हिंदी में ही भारत माता का जयघोष सुन रहा था…वंदे मातरम का नारा लगा रहा था…अन्ना की आवाज दरअसल हिंदी का श्राद्ध करने वालों और विमर्श से हिंदी को बाहर रखने वालों को मुकम्मल जवाब है…..जरूरत बस इसे गहराई तक महसूसने और उसके अनुरूप काम करने की है।

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