होली का त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को ही क्यों मनाते हैं ?

पौराणिक कथा के अनुसार असुर राज हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद भगवद् भक्त (भगवान का भक्त) था। उसे वह भगवान श्रीहरि की पूजा करने से मना करता था। किन्तु जब प्रहलाद नहीं माने तो वह (हिरण्यकशिपु) उसे मारने के अनेक उपाय किए पहाड़ पर ले जाकर गहरी खाई में गिराया । अस्त्र से मारने का प्रयास किया किन्तु वह विफल रहा तब उसकी बहन होलिका ने कहा –भैया ! मैं एक पल में इसे जलाकर मार सकती हूं। मैं इसे गोंद में लेकर जलती चिता में बैठ जाऊंगी और यह जलकर मर  जाएगा। मुझे वरदान है कि मैं यदि अग्नि में प्रवेश कर जाऊं तो भी नहीं जलूंगी । किन्तु होलिका यह भूल गयी थी वह वरदान उस अकेली के लिए था न कि किसी को साथ लेकर प्रविष्ट होने के लिए।

वह खुशी-खुशी चिता तैयार करवाकर प्रहलाद को लेकर बैठ गयी । चिता में उसके ही कहने पर राक्षसों ने आग लगायी । उधर प्रहलाद आंखे बंद किए हरि के नाम का स्मरण करने में लीन थे। आग लगते ही होलिका जलकर भस्म हो गयी औऱ प्रभु कृपा से प्रहलाद का बाल भी बांका न हुआ। तब से उस राक्षसी को जलाने की प्रक्रिया देश में हर वर्ष मनायी जाती है। जल रही होलिका में लोग खेतों से जौ ,चने और गेहूं की बालियां तोड़कर भूनते हैं यह भूनने की क्रिया करने का अर्थ है कि सर्वप्रथम हम अपने देवताओं की आहुतियां प्रदान करते हैं। आहुतियां अग्नि में ही दी जाती है उसके बाद प्रसाद स्वरुप अन्न् घर लें जाते हैं अर्थात् उसके बाद जौ आदि की कटाई शुरु होती है।

इंडिया हल्ला बोल

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