ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि इरोम शर्मीला को याद किया जाए। दस साल पहले इरोम ने जिस सत्याग्रह की शुरूआत की थी वह वैसा ही है, कोई उतार चढ़ाव नहीं है, न तो मणिपुर की परिस्थितियों में और न ही इरोम की अडिग स्थिति में। लेकिन जब बात इरोम शर्मिला की शुरू हो तो याद रखिए कि उनको अवसरों पर याद करने की जरूरत नहीं है, उनका सत्याग्रह आधुनिक भारत में एक ऐसा अनुष्ठान है जिसकी यादों से उठने की ही जरूरत नहीं है, इरोम शर्मिला हमें याद दिला रही हैं वक्त लगेगा लेकिन सैनिक बल नैतिक बल के आगे नतमस्तक होता है। इसलिए हम उन्हें असमय याद करें तो इसमें असहज क्या है?
नवम्बर 2, 2000 को गुरुवार की उस दोपहरी में उस लड़की के लिए सबकुछ बदल गया, जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने 10 निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी। भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी, वो हथियार उठा सकती थी, मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया। ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया था।
शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के न सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने का भी अधिकार मिल जाता है, पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं , वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान न सिर्फ देश के एक राज्य में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं। शर्मिला का कहना है की जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून -1958 को नहीं हटा लेती ,तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी। आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है। अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर उठने वाली कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है,मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है। शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि वो कोई मॉडल या अभिनेत्री नहीं है और न ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहू है।
इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं। वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की प्यारी बेटी है, वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम आ सके। उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अद्भुत ज्ञान है ,वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं। लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला न होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही ,उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया। वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं ,जब दिसम्बर 2006 मेंइरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं। गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है। शर्मीला कहती है ‘आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं ,इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है, भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें ?
३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है ‘ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति, प्रेम और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है “। चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं। वे अन्दर से बेहद बीमार है। लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती ,वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है ‘मैं मानती हूँ आत्मा अमर है ,मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं, यंत्रणा नहीं है, ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है। शर्मिला ने पिछले 8 वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है ‘मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा न कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना। ’लेकिन जब शर्मीला की 64 साल की माँ से बेटी से न मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं, रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं ‘मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी, मैंने उसे आशीर्वाद दिया था, मैं नहीं चाहती की मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा न हो पाए ,यही वजह है की मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती ,हम उसे जीतता देखना चाहते है ‘।
जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद,नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों से जूझ रहे हैं है। मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है, ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है, सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है। मणिपुर में भी यही हो रहा है ,आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं ,शिक्षा का स्तर बेहद खराब है ,लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं ,ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं। लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि यहाँ पर सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए ,अगर ऐसा होता रहा तो आने वाले समय में देश को गृहयुद्ध से बचा पाना बेहद कठिन होगा। जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की ‘भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो ‘तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता ,सिर्फ शर्मिला नहीं रोती ,आजादी भी रोती है ,देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं। शर्मीला कहती है ‘मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है, मुझे अभी बहुत कुछ सहना है, लेकिन अगर मैं जीवित रही, खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे‘। अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है।
बहन इरोम की ही एक कविता की कुछ पंक्तियां उसकी मनस्थिति को सही बखान करती हैं-
खोल दो इस कैद के सारे दरवाजे
मैं किसी और रास्ते पर नहीं जाऊँगी
खोल दो काँटों की ये बेड़ियाँ
और मुझे इस अपराध का दोषी न ठहराओ
कि मैंने एक पंछी का अवतरण लेना चाहा…
आवेश तिवारी