पुराकृतयुगस्यादौ सर्वभूत हिताय च।
मूर्तिमान्भगवांस्तत्रतपोयोग समाश्रिताः।।
त्रेतायुगेहिऋषिगणौ योगाभ्यासैक तत्परः।
द्वापरे समनुपाप्ते ज्ञान निष्ठोहि दुर्लभः।।
पहले सत्ययुग में भगवान् मूर्तिमान् होकर तपस्या करते थे। त्रेता से योगाभ्यासी ऋषियों दर्शन होते थे। द्वापर आने पर ज्ञाननिष्ठ मुनियों को भी भगवान् के दर्शन दुर्भभ हो गये अर्थात् उन्हें भी भगवान् दिखाई नहीं दिये।
श्री भगवान् पहिले अपने साक्षात् रूप से बदरिकाश्रम में निवास करते थे। जब भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन का अवतार ग्रहण करने जाने लगे तब ऋषियों ने कहा प्रभो! आप ही तो हमारे अवलम्ब हैं। आप इस क्षेत्र को त्याग कर न जाँय। एक रूप से आप यहाँ निवास करें और एक रूप से आप अवतार धारण करें।
भगवान् बोले – कलियुग मे मैं साक्षात् रूप से नहीं रह सकता! नारद शिला के नीचे अलकनन्दा में मेरी एक दिव्य मूर्ति है उसे निकालकर तुम लोग स्थापित करो। उसे जो कोई दर्शन करेगा उसे मेरे साक्षात् दर्शन का फल प्राप्त होगा।
ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से वह मूर्ति निकाली। मूर्ति शालिग्राम शिला में बनी हुई ध्यानमग्न चतुर्भुज बड़ी ही भव्य थी। देवताओं ने विश्वकर्मा से मन्दिर बनवाया और नारद जी उसके प्रधान अर्चक नियुक्त हुए।
स्वामी शरभेश्वरा नंद भैरव