गीता में सभी समस्याओं के समाधान के उपाय

कहते है- इसमें ह्मम, बैथम, हाब्स एरिस्टीपस, इपीक्यूरस जैसे सुखवादियों तथा सिनिक्स, स्टोइक, प्लेटो स्कूल मैन व काण्ट जैसे कठोरतावादियों के मध्य सुन्दर सामंजस्य उनके जन्म से सहस्रों वर्ष पूर्व ही स्थापित कर दिया गया था।

इस सामंजस्यपूर्ण स्थिति को गीता के छठे अध्याय के 17 वें श्लोक में व्यक्त किया गया है। “शारीरिक पोषण के लिए यथोचित आहार मानसिक की ऊर्ध्वगामिता को गति देते हुए विहार इन्हीं के अनुरूप कर्मों में अप्रमत चेष्टा विश्रान्ति के निमित्त आवश्यक निद्रा व पुनः इसको गतिमान रखने के लिए दिया समय जागरण ही ग्रहणीय है।”

नीति विषयक यह मर्यादा रोगी स्वस्थ सभी के द्वारा ग्राह्य है। इसके परिपालन से बौद्धिक अशिक्षित सभी अपने जीवन को स्वस्थ समुन्नत बनाते हुए आवश्यक प्रगति कर सकते हैं। किन्तु इस महान नैतिक प्रविधि के रहते हुए भी हमारी अवगति क्यों हुई तथा हो रही है? इसका कारण मनोअध्येता एरिकफ्राँम अपने अन्य ग्रन्एस्क्रेप फ्राँमफ्रीडम” में स्पष्ट किया गया है कि अभी तक हमने कुछ देर तक इस नीतिशास्त्र का रटने में जिव्हा को उच्छृंखलता-पूर्ण आचरण में नियोजित किया। इसी कारण हमारी स्थिति अर्ध विक्षिप्त-सी हुई है। इस तरह के रटने को वह “लिपसर्विस “ या “ओष्ठ सेवा” का नाम देते हैं। इसी आचरण विहीनता के कारण हमारा मस्तिष्क भले ही इक्कीसवीं सदी में विचरण करता हो किन्तु हृदय अभी भी पाषाण-युगीन ही है।

मनीषीगण स्पष्ट करते है कि इस नैतिक आदर्श पर लगातार चिन्तन जहाँ हमारी मानसिक संरचना को परिवर्तित करेगा, वही कर्मों के द्वारा हुई इसकी अभिव्यक्ति हमारे जीवन के समूचे ढाँचे में विधेयात्मक परिवर्तन करने वाली होगी। यही एक वह उपाय है जिससे व्यक्तिगत व सामाजिक स्तर पर मनोरोगों से छुटकारा पाकर उसका अभिनव गठन कर सौंदर्यवान बना व सृष्टि को सुन्दर बनाया जा सकता है।

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