सर्दियों का मौसम और शादियाँ, तौबा तौबा !!!

इसे पंडितों की मेहरबानी कहें या हमारा विश्वास , शादियों के लिए वर्ष में गिने चुने दिनों को ही शुभ माना जाता है । नतीजा, एक दिन में हजारों जोड़े एक दूसरे के हो जाते हैं। कभी-कभी तो एक ही दिन में कई शादियों के निमंत्रण होते हैं।
इन सहलगों के दौरान सबसे ज्यादा अगर व्यस्त शेड्यूल है,तो वो है अग्नि का! क्योंकि इन्हें एक साथ कई जोड़ो का साक्षी बनना पड़ता है। इनके साक्षी बनने के बाद सभी को यह विश्वास हो जाता है कि हां,भाई अब यह जोड़ी सात जन्मों तक साथ रहेगी।

शादियों का आयोजन भी अब गली के नुक्कड़ या पार्क में नहीं , बल्कि कई किलोमीटर दूर किसी फार्म हाउस में किया जाता है। वहां तक पहुंचने में ही काफी समय की खपत हो जाती है। शर्मा जी घर से क्रीम,पाउडर लगाकर निकले थे। बेचारे किस्मत के मारे ट्रैफिक जाम के जाल में फंस गए। सारा मज़ा किरकरा हो गया। क्रीजदार कपड़ो की हालत पहुंचते-पहुंचते ऐसी हो गयी थी मानो किसी को कई दिनों से भोजन न दिया गया हो

पहले तो निमंत्रण पत्र देखकर ही आप सकते में आ सकते हैं । आजकल शादी के कार्ड कम, बल्कि डिजाइनर पैक ज्यादा बनवाए जाते हैं। इसमंे एक तरफ आधा किलो बादाम , दूसरी ओर सिल्क के कपड़े में लिपटा असंख्य पर्तों वाला कार्ड , जिसमे कम से कम चार दिन का प्रोग्राम बुक होता है। सिल्क का कपड़ा भी इतना कि उसमें किसी आधुनिका की दो तीन जोड़ी ड्रेस बन जाएँ। पुरुषांे को तैयार होने में सिर्फ दस मिनट लेकिन महिलाओं को चाहिए दो घंटे ।

इस पर विडंबना यह कि फार्म हाउस की खुली हवा में थ्री पीस सूट में भी ठण्ड से ठिठुरने लगते हैं दिसंबर की सर्दी में। लेकिन मात्र एक साड़ी में लिपटी भारतीय नारी स्वेटर या शाल को हाथ पर लटकाए मजे से चटकारे लेकर चाट पापड़ी खाती नज़र आ जायेंगी ।

इधर मेन गेट पर बैठे शहनाई वाले या तबलची ढोलक बजाएं , उधर स्टेज के पास बना डीजे का फ्लोर और चिंघाड़ता हजारों वाट का म्यूजिक सिस्टम हिंदी फिल्मों के लेटेस्ट हिट सोंग्स परोसता हुआ मिल जाएगा। इधर बलमा,मुन्नी ,शीला फेवीकाल और झंडु बाम और उधर बहत्‍तर तरीके के व्‍यंजन। ऐसा शायद इसलिए किया जाता होगा ताकि कहीं सारे लोग एक ही साथ भोजन पर न धमक पड़ें। ध्यान भटकाने का अच्छा तरीका है यह!

आप चाहें भी तो किसी से बात करने की जुर्रत नहीं कर सकते । वैसे भी आजकल कौन किस से बात करने में दिलचस्पी रखता है ।रही सही कसर बारात में छूटने वाली चाइनीज़ आतिशबाजी पूरी कर देती है । खाने की ओर देखें तो बड़े से बड़ा विद्वान भी चकरा जाए कि क्या खाएं , क्या न खाएं । उत्तर भारतीय , दक्षिण भारतीय , चाइनीज , कॉन्टिनेंटल , इंटर कॉन्टिनेंटल , यहाँ तक कि एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल व्यंजनों की कतार देखकर समझदार भी कई बार असमंजस में पड़ जाएँ । हलवाई की पूरी दुकान देखकर डायबिटिक्स भी अपनी बीमारी भूल जाएँ। रात के खाने में तीन रोटियां खाने वाले सीधे सादे प्राणी को 300 व्यंजन देखकर अपने गरीब होने का अहसास होने लगता है

अंत में यदि आपको अपने मेज़बान के दर्शन हो जाएँ और आप अपना लिफाफा सौंपने में कामयाब हो जाएँ तो जीवन कृतार्थ लगने लगता है । मेहमान कितने ही हों , लेकिन देखकर यही लगता है कि इस तरह की शादियों में खाना बहुत बचता होगा । मैंने एक केटरर से पूछा कि वो इस बचे हुए खाने का क्या करते हैं ? उसने बताया कि वो इसे फेंक देते हैं । अब जरा सोचिये यदि वह सच बोल रहा था तो यह कितना भयंकर सच होगा । जिस देश में अन्न पैदा करने वाला किसान भूख और कर्ज़ के बोझ से मर जाता है , वहां खाने की ऐसी बेकद्री ! और यदि वह झूठ बोल रहा था तो , उस खाने का क्या होता होगा , यह सोचकर ही दिल कांपने लगता है।

यदि आपको पता चल जाए कि उस बचे हुए खाने का क्या होता है तो शायद आप शादियों में खाना खाना ही छोड़ दें!

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