टी.वी के कोठे पर पत्रकारों का मुजरा

कभी कभी गली के नुक्कड़ और चाय के दुकान पर भी बड़े बड़े मशवरे मिल जाया करते है। वैसे तो पहले चाय और पान की दुकान से ही बड़ी बड़ी सियासत तय होती थी । तब वाकई राजनीति हुआ करती थी, लेकिन दौर बदलने के साथ ही काफी कुछ बदल गया है । फिर भी ज्ञान तो हर जगह बंटता है, इसी तरह कुछ ज्ञान मुझे भी चाय की दुकान पर मिल गया । जो मैं अब आप के साथ बांट रहा हूं , वैसे ये ज्ञान तो काफी कड़वा है क्यो कि मेरे पेशे से जुड़ा है, फिर भी बांट रहा हूं ।

दरअसल हुआ कुछ यूं, कि एक दिन सुबह-सुबह कुछ पत्रकार मित्रों को कॉल करते हुये मैं चाय की दुकान पर पहुंचा। सुबह का समय होने के नाते चाय की दुकान पर काफी भीड़ -भाड़ थी। तभी मेरे मित्र भी आ गये। फिर आदत से मजबूर हम शुरु हो गये पहले की तरह, जैसे कभी देश-विदेश को लेकर तो कभी व्यक्ति-विशेष को लेकर। इसी तरह उस दिन भी कश्मीर को लेकर बात-चीत चल ही रही थी। हर व्यक्ति अपनी राय रख रहा था। कुछ लोगो की नज़र में सिस्टम दोषी था तो कुछ की नज़र में सरकार नाकाबिल तो कुछ मीडिया को जिम्मेदार मान रहे थे। तभी अचानक से मेरे बगल में खड़े कुछ नौजवान दोस्त, जो हमारी बात सुन रहे थे। अचानक से बिदग गये। मानो कि हमने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वो हम पर कुछ इस कदर बरस पड़े जैसे हिन्दुस्तान में आयी बाढ के लिये यही बादल जिम्मेदार हो। पता नहीं कब की दुश्मनी दबाये रखे थे जो अचानक से निकल आयी। फिर क्या था बिना बादल बरसात भी शुरु हो गयी। उनका कहना था, कि इन सब की जड़ आप लोग हो। क्या आप को पता है, देश को आजादी दिलाने वाली मीडिया आज बैसाखी के बल चल रही है। आज की मीडिया पेज 3 से लेकर सास बहू और सागा में सिमट गयी है। आप को नहीं लगता कि मीडिया बिक चुकी है, मुझे गुस्सा आया, तभी मुझे याद आया न्यूज रुम का शोर कि फलाना का फोन आया खबर गिराओ , खबर गिराओ। तभी दूसरा बोल पड़ा, एक तरफ तो आप पहले खबर बना कर सनसनी पैदा करते हो, फिर समीक्षा कर खुद को हीरो बनाने की कोशिश करते हो। मैं कुछ बोलता, तभी मुझे अरुंधति रॉय, उमर अब्दुला और ललित मोदी का ख्याल आया। उसी समय पीछे से आवाज़ आती है, आज खबर बेचते-बेचते कलमकार भी बिकने लगे है। जो किसी ना किसी के लिये लिखते है और सत्ता के गलियारो की राह देखते है। आज कुछ कॉग्रेस के दरबारी तो कुछ बीजेपी के बाकि जो बचे वो कम्युनिस्ट के हो गये… कभी कलम के सिपाही सलतनत हिला कर रख देते थे और आज सियासत में ही दम तोड़ देते है।

अब पानी मेरे सर से उपर था, लेकिन मरता क्या नहीं करता। उस समय मुझे सत्ता के कुछ दरबारियो की याद आ रही थी। जो हमेशा सत्ता के गलियारो में दरबारी करते है। ऐसा नहीं था, कि दलीले मैं नहीं दे रहा था, पर ये जानता था, कि वो कही भी गलत नही थे। फिर भी मैं बोल पड़ा, पता है आज जो भी थोड़ी बहुत अराजकता पर लगाम लगी हो वो मीडिया की देन है। आपको पता है अगर मीडिया नहीं होती तो क्या होता तभी मेरी बात बीच में काट एक वरिष्ठ सज्जन बोल पड़े। हॉ गरीबो के जोर पर अमीरो का पैसा नहीं चलता, जानते हो आज क्यों किसी पर मीडिया का कोई असर नहीं रहा क्योंकि आज पैसा और पावर के चौखट पर मीडिया भी दरबार लगाती है। आज पत्रकारिता कोठे पर बैठी औरत की तरह है। जिसके पास जितना दम खम हो वो उतना इस्तेमाल कर ले। इतना कहना था कि हम सब का खून खौल उठा, बात तू- तू, मैं- मैं पर उतर आयी। लेकिन फिर मैं यही सोचा माना कुछ गलत बोल रहे है पर पूरी तरह से नही यह सोच फिर चुप हो गया। एक भाई साहब थोड़ी समझदारी दिखाते हुये बोले कि ऐसा नहीं कि मीडिया पूरी तरह से गलत है पर जिस फल का आधा हिस्सा खराब हो जाय उसे क्या कहेंगे , हम आप को दोष नहीं देते अगर आप शराफत का चोला उठाये नही घूमते पर क्या करे समाज की जिम्मेदारिया तो आप लोगो ने उठा रखा है। मुझे लग गया था, कि ये पब्लिक है सब जानती है, इनका कहना है कि जिसके खिलाफ आप लोग टी. वी. पर चिल्लाते है और अखबार में लिखते है उन्ही के साथ शाम को पैमाने भी छलकाते है। तो फिर काहे का असर और काहे की पत्रकारिता…

अब तर्क का दौर कुतर्क में बदल चुका था ऐसे में मुझे लगा की बातों को दूसरा मोड़ दे देना चाहिये और मैने ऐसा ही किया। इसी के साथ उनको यह भरोसा दिलाते हुये कि नयी पीढी कुछ-ना-कुछ नया जरुर करेगी, हमने भी विदा ली। लेकिन यह बात यही नहीं खत्म हुई मुझे कौधती रही और मैं अपने आप से ही कुछ सवाल जवाब में उलझ गया। काफी सोचने के बाद निष्कर्ष तो यही था कि माना कि वो पूरी तरह से सही नहीं है, पर गलत भी नहीं है। क्यो कि आज मीडिया, मीडिया नहीं रही। यहां अब पढे लिखे पत्रकार न होकर व्यवसायी इसका व्यापार कर रहे है। यह भी सच है कि अब मीडिया की आवाज़ जनता की आवाज़ नहीं रही। आज मीडिया सत्ता पर लगाम लगाने के बजाय इसकी भेंट चढ गयी है। इसका कारण यह है कि मीडिया के पहरेदार बिक रहे है और जो नही बिकेते वो मजबूर बैठे है। याद आता है, खबर गिराओ- खबर गिराओ या फिर वही लिखो या दिखाओ जो बिकता हो , भले ही खबर बनानी पडें। आज मीडिया समाज के लिये कम और व्यक्ति विशेष के लिये ज्यादा काम करती है। यह सच है, कि आज मीडिया एक ऐसी जगह बैठी है जो कोठे से नहीं, और कुछ पत्रकार बोली लगाने पर मुजरा करते भी नजर आते है। रही बात इस फिल्ड में कमिंग सून की तो छमक तो उनके पैरो से भी उसी पायल की आती है जिसे मीडिया के सरताज बांध देते है। नयी पीढि को आज मीडिया का क ख ग पढाने से पहले ही ये बताया जाता है।

“मीडिया मिशन नही प्रोफेशन है”

इसमें कोई शक नहीं कि आज यही एक लाइन से मीडिया का चीर हरण हो रहा है और पांडव ही उसमें ताडंव कर रहे है । लेकिन बावजूद इसके भी कोयले के खान में हीरा और सोना तो है बस निकालने की जरुरत है ।

सर्वेश मिश्रा

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