आखिर क्या हैं गणतंत्र दिवस के सही मायने?

पिछले एक वर्ष में भारत बदला है। गणतंत्र दिवस आने वाला है। पर आखिर क्या हैं गणतंत्र दिवस के सही मायने? क्या आज का भारत गणतंत्र है? क्या यह वही भारत है जिसे ध्यान में  रखकर संविधान लिखा गया होगा?

इस समय स्कूलों में दाखिले की होड़ लगी हुई है। किराने की दुकान पर एक महाशय फ़ोन पर बात कर रहे थे और अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला हो जाये इसके लिये ढाई लाख रूपये देने को तैयार थे परन्तु स्कूल चार लाख माँग रहा था। आज की तारीख में यह साफ़ नजर आ रहा है कि स्कूल पैसे लेने को तैयार बैठे हैं और अभिभावक देने को। ये वही अभिभावक हैं जो रामदेव या अन्ना के साथ खड़े दिखाई देते हैं क्योंकि बाबू लोग और नेता अपनी जेब गर्म कर रहे हैं।

किन्तु फिर यही अभिभावक अपने बच्चे के दाखिले के लिये ढाई लाख रूपये देते हैं। पर स्कूल का क्या? पढ़ाई जैसे बुनियादी अधिकार को पैसे खरीदते बेचते यह लोग ज्ञान की देवी को “सुविधाओं” के हाथों बेच देते हैं। यह किस प्रकार की व्यवस्था है? इस व्यवस्था में मध्यम वर्ग की व्यथा है। मध्यम वर्ग व्यवस्था को दोष देता है। उसे पता है कि स्कूल में पढ़वाना और बच्चे का भविष्य बनाना है।

किन्तु यह कैसा भविष्य है जिसकी नींव ही भ्रष्टाचार के तंत्र में लिप्त है? यह व्यवस्था आखिर बन कैसे गई? क्या शिक्षा के तौर तरीके का बदलाव इसे ठीक कर सकता है? क्या सिलेबस कम या ज्यादा करने से सुधार होगा? क्या लोकपाल इसमें सुधार कर सकता है? क्या स्कूल इसी तरह से पैसे माँगते रहेंगे? और क्या लोग भी पैसा देने को राजी होते रहेंगे? क्या रिश्वत देना और लेना दोनों ही जुर्म नहीं होते? क्या ऐसा नहीं है कि स्कूल इसलिये लेता है क्योंकि अभिभावक पैसा देने को तैयार बैठा है? स्कूल को यह ज्ञात है कि एक नहीं तो दूसरा सही, दूसरा नहीं तो तीसरा सही। इस पर सरकार या टीम अन्ना किस तरह से रोक लगा सकती है यह विचारनीय है।

आपके और मेरे और सभी के ही ऑफ़िस में मेडिकल के बिल दिये जाते हैं। वर्ष में १५००० रूपये के बिल देकर हमें कर में कर (टैक्स) में छूट मिल जाती है। इसके लिये कैमिस्ट से हमें बिल “बनवाने” पड़ते हैं। नकली बिल। कैमिस्ट भी दो प्रतिशत की दर से जितने का बिल आप बनवाना चाहो, बनवा सकते हो। यहाँ हम किसे दोष दे सकते हैं? एक मुश्त सैलरी पाने वाले उस कर्मचारी को जो एक एक रूपया बचाना जाता है ताकि इस महँगाई में जीविका चलाई जा सके? या आप दोष देंगे उस कर प्रणाली (Tax System) जो हमें ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर देती है। यह अलग किस्म का भ्रष्टाचार है। हमारे छोटे से छोटे कार्य में भी भ्रष्टाचार का तंत्र इस कदर हावी है कि हमें “गलत” व “सही” का एहसास ही नहीं हो पाता चाहें यह “सिस्टम” के कारण हो अथवा हमारे निजी स्वार्थ के कारण। यह भ्रष्टाचार रग रग में बस चुका है। क्योंकि सारा सिस्टम ही ऐसा है। क्या लोकपाल इस बीमारी का इलाज कर सकता है? और भी कईं वाकये हमारी ज़िन्दगी में होते हैं – ट्रफ़िक पुलिस वाले को सौ की जगह पचास “खिलाने” की बात आये या फिर रेल में टिकट पक्की करने के लिये टिकट चैकर को “खिलाने” की बात हो। कहीं भी लोकपाल काम नहीं आ सकता। क्योंकि अधिकतर जगहों पर “देने” वाले तैयार बैठे हैं। पैसे न सही तो चोरी पकड़े जाने पर “ऊपर” के लोगों की जानपहचान निकालना गर्व की बात समझी जाने लगी है।

भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी हैं कि लोकपाल का छिड़काव ऊपर की पत्तियों तक तो पहुँच जायेगा किन्तु इसकी जड़ों तक नहीं पहुँच सकता। और जब तक यह जड़ रहेगी तब तक पौधा पनपता रहेगा। लोकपाल उस एलोपैथी की दवाई की तरह है जो बीमारी को केवल ऊपर से ठीक करती है, जड़ से समाप्त नहीं। ऐसा नहीं कि अन्ना के लोकपाल से सुधार नहीं होगा। होगा.. पर वो केवल दिखावटी सुधार होगा। डर कर सुधार होगा। मन व आत्मा से नहीं। वहाँ तो अशुद्धि की परत जमी रह जायेगी।

भारत को गणतंत्र हुए ६२ साल हो गये हैं। इन ६२ सालों में हमने जो सोचा, जिस सोच से आगे बढ़े थे वो सोच पीछे रह गई है। गणतंत्र का अर्थ होता है हमारा संविधान – हमारी सरकार- हमारे कर्त्तव्य – हमारा अधिकार। हमारा संविधान हमें बोलने का व अपने विचार रखने का अधिकार देता है। सरकार इसका विरोध करती है। फ़ेसबुक, ट्विटर आदि सोशल साईट इसका उदाहरण हैं। यह कैसी स्वतंत्रता? यह कैसा गणतंत्र? यह साईटें सीधे जनता की आवाज़ है। यह मीडिया “बिकाऊ” नहीं है। इन पर रोक लगाना तानाशाही के बराबर है। मनमोहन सिंह को सोनिया जी की गोद में बिठाकर तस्वीर बनाने को जायज़ क्यों नहीं ठहराया जा सकता? जहाँ तक मेरा ज्ञान है राष्ट्रपति और राष्ट्रपिता को छोड़ कर किसी का भी कार्टून बनाया जा सकता है। क्या सरकार तभी कुछ कदम उठाती है जब उस पर अथवा किसी वर्ग पर उंगली उठे। और वो भी तब जब चुनाव हों। क्या सलमान रुश्दी व तस्लीमा नसरीन स्वतंत्र नहीं? यह कैसा गणतंत्र?

क्या हमें अपने विधेयक बनवाने अधिकार नहीं? जनलोकपाल और बाबा रामदेव के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक समाप्त करना विचारों के अधिकारों का हनन नहीं? संविधान के कानूनों के दाँवपेंच में सरकार जनता का उल्लू सीधा करने में कामयाब रहती है। किन्तु मामला एक तरफ़ा नहीं है। हम अपने वोट के अधिकार को अनदेखा कर देते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य याद रखने चाहियें। हमें अधिकार याद रहते हैं किन्तु कर्त्तव्य भूल जाते हैं। हर नागरिक को जागरुक होना पड़ेगा। हर अधिकारी अपना कर्त्तव्य निभाये और जनता के अधिकारों को पूरा करे। इसी तरह जनता यदि अपने कर्त्तव्यों को पहचाने तो ही कुछ हो सकता है। आज अजब सा विरोधाभास है। गणतंत्र दिवस उस संविधान के लिये है जिसके तहत जनता और सरकार दोनों में विश्वास पैदा होता है पर पिछले एक वर्ष में इतना सब हुआ कि जनता का सरकार व राजनैतिक दलों के ऊपर से विश्वास उठ गया है। यह चिन्ता का विषय है। पर इसमें अच्छाई यह भी कि शायद नेता व दल इन कुछ समझेंगे। और क्या हम भी समझेंगे? हमारे अधिकार समझाने के लिये चुनाव आयोग 25 जनवरी को  “National Voters Day” का आयोजन कर रहा है। अब भी नहीं समझे तो कब समझेंगे?

व्यवस्था की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। व्यवस्था में लगातार सुधार की गुंजाईशा है।  एक आंदोलन की आवश्यकता है। जागरुकता की आवश्यकता है। मजहब व जाति से ऊपर उठकर देशधर्म अपनाने की आवश्यकता है। प्रेम की आवश्यकता है। यह देश असल में गणतंत्र तभी हो पायेगा जब हर नागरिक अपना कर्त्तव्य निभायेगा और दूसरे के अधिकारों की पूर्ति होगा। और तभी हम सर उठाकर स्वयंको गणतंत्र घोषित कर सकेंगे।

तपन शर्मा

(गेस्ट संपादक, इंडिया हल्ला बोल)

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