मेरा दर्द न जाने कोय …

सरकार में बैठे लोग तथाकथित दावा करने वाले नेता, विशेषकर योजना आयोग की कुर्सी पर बैठ कर जिस तरह से देश की तस्वीर रची जा रही है ऐसा करना गरीबो को क्रोधित करना है।जवान भारत का गरीब भविष्य…

नवरात्री का मौसम चल रहा है। इसके बाद दिवाली आएगी पूरा देश इन फेस्टिवल में बड़े धूम धाम से अपने आपको शरीक करेगा।  अगर हम घर से निकले तो चारों तरफ डीजे की धुन सुनाई पड़ रही है। हर कोई अपने में व्यस्तहै कही लाउडस्पीकर पर माँ के गीत सुनाई दे रहे है। तो कही पटाखे फूट रहे है। चारों तरफ पूरा देश रौशनी से जगमगा रहा है। कोई अपने माता पिता से फास्टफूड खाने की जिद कर रहा है, तो कोई खिलौने की, आजकल ये तस्वीर है भारत  की। इन सबके बीच जगह – जगह फेके गए कूड़े कचरे के ढेर सभी नंगे पाँव फटेहाल कंधो पर बड़ा सा बोझा टाँगे छोटे – छोटे हाथ सभी पतली लोहे की छड़े या किसी डंडी से इन्ही कूड़े के ढेरो में अपनी रोटी तलासते बच्चे व किशोर यह भी एक तस्वीर है। भारत की पहली तस्वीर की चमक के आगे इस तस्वीर का कोई अस्तित्व नहीं है ये इन सबसे चीजो से महरूम है इनके लिए तो वो दिन खास होता है जब इनकी कमाई कुछ अच्छी हो जाती है क्यों कि उस दिन उनका पेट आसानी से भर जाता है इस कड़वे सच का दुखद पहलू ये भी है। अब ये जिंदगी सियासत का मोहरा भी बनती जा रही है। जिससे इन्हें संदेह भरी नजरों से देखा जाता है। कोई इन्हें बांग्लादेशी कहता है तो कोई गिरोह का चोर आदि नामों से बुलाया जाता है। बहरहाल इन सब के बीच भविष्य की अँधेरी सुरंग में हजारो की संख्या में ऐसे लोग अपना जीवन यापन करते है। सुबह सूर्य से पहले (मुंह) अँधेरे से लेकर दिन के दो बजे तक शहर के गली कुचों में गंदे नालो से निकाले गए बड़े बड़े कचरों के ढेर के पास देखे जा सकने वाले इन किशोरों का अपना अलग वर्ग है। प्लास्टिक, थैला, जूता .. चप्पल, डिब्बा, ढक्कन आदि. दो रुपये से लेकर पांच रुपये प्रति किलो तक बेचकर अपनी जिंदगी 
बसर करने वाले इन बच्चो और इनके माँ बाप की बड़ी दर्द भरी कहानी है। चुन्नू का कहना है कि जब हम लोग अपने पेट भरने के लिए ये काम करते है। तो 
लोग हमें काफी मारते पीटते है। सुबह आदमी के साथ-साथ कुत्तो का भी बड़ा भय लगा रहता है। 

झुग्गियो में रहने वाले ये लोग नेताओ से कुछ ज्यादा ही खफा नजर आते है। इनका कहना है कि वोट न देने पर उन्हें बंगलादेशी, चोर, गिरहकट आदि नामों से पुकारते है और पुलिस के द्वारा पिटवाते है। इन लोगों की समस्या का एक बड़ा कारण परिवार का बड़ा होना भी है। परिवार नियोजन, सरकार की योजनाये यहाँ आकर दम तोड़ जाती है। हांलाकि सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत बच्चों को स्कूल भेज रही है लेकिन कचरे ढोने वाले इन बच्चों के नसीब में स्कूल के दर्शन नहीं है। शायद इसका एक बड़ा कारण यह है क़ि ये स्कूल जायेंगे तो घर का खर्च कौन चलाएगा। स्वस्थ और सभ्य समाज में अलग थलग इस तबके की ओर कोई देखना पसंद नहीं करता है। 10 से 15 बच्चो का परिवार सभी कोई कचरा बीनता है ,तो कोई पंचर जोड़ता है। तो इनमें से कोई शातिर अपराधी बन जाता है। लेकिन इनमें से कई बच्चो के अच्छे सपने भी है कोई डॉक्टर बनना चाहता है ।तो कोई कवि, सबके अलग – अलग सपने है। लेकिन इनके सपनों से किसी को मतलब नहीं है। योजना आयोग की रिपोर्ट ने पल भर में एक अमीर भारत का निर्माण कर दिया। लेकिन वास्तविकता पर गौर करे तो तस्वीर कुछ और ही है। अकेले राजधानी लखनऊ 15000  से ऊपर ऐसे लोग है जो सडको के किनारे जीवन बसर करने के लिए मजबूर है। अलबत्ता गलिओं के कुत्ते जरूर इनका ख्याल रखते है. सरकार द्वारा चलाये जा रहे किसी भी योजना का लाभ इन्हें नहीं मिलता है। ऊपर से इनके आशियाने को तोड़ने को सरकार जरूर प्रयत्नशील रहती है। ऐसे में इनकी व्यस्था और दयनीय हो जाती है।सरकार द्वारा चलायी जा रही सारी योजनाये यहाँ आकर बौनी साबित हो जाती है। वैसे बाल मजदूरी कानूनी रूप से प्रतिबंधित है। लेकिन इन तक आकर यह कानून भी मुह मोड़ लेते है। 

अम्बरीश द्विवेदी

इंडिया हल्ला बोल

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