वनों और वन संपदाओं पर आश्रित वनवासियों के लिए स्वस्थ रहने का एक मात्र साधन जंगल और जंगल से प्राप्त संसाधन ही होते हैं। मकानों को बनाने के लिए लकड़ियों की बात की जाए या घरों के फर्नीचर्स, सभी वन संपदाओं से प्राप्त होते हैं। घरों में चूल्हे जलाने की बात हो, खेतों में जुताई के लिए हल की व्यवस्था करना जैसे हर एक काम के लिए वनवासियों को प्रकृति की ही शरण में जाना होता है। बेहतर स्वास्थ्य और रोग मुक्ति के लिए ये वनवासी जंगली जड़ी-बूटियों, पेड़-पौधों और उनके अंगों जैसे जड़ें, पत्तियां और फलों आदि का इस्तेमाल करते हैं।भुमका और भगत कहलाने वाले आदिवासी जड़ी-बूटी जानकार पौधों के समस्त अंगों का उपयोग कर रोग निवारण करने का दावा करते हैं और इनके इस हुनर को एक हद तक विज्ञान भी सराहता है। आज हम जिक्र करेंगे कुछ पेड़ पौधों का जो हमें मीठे खट्टे फल तो देते ही हैं, लेकिन इन पेड़ पौधों के तमाम अंगों का इस्तेमाल आदिवासी अनेक हर्बल नुस्खों के तौर पर करते हैं। चलिए जानते हैं किस तरह इन पेड़-पौधों के तमाम अंगों को आदिवासी हर्बल जानकार विभिन्न रोग निवारण के लिए उपयोग करते हैं।
शहतूत- शहतूत को मलबेरी के नाम से भी जाना जाता है। मध्य भारत में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। वनों के अलावा इसे सड़कों के किनारे और बाग-बगीचों में भी देखा जा सकता है। इसका वानस्पतिक नाम मोरस अल्बा है। शहतूत के फलों रस पीने से आंखों की रोशनी तेज होती है और इसका शर्बत भी बनाया जाता है।शहतूत का रस दिल के रोगियों के लिए भी लाभदायक है। बार-बार प्यास लगने की शिकायत होने पर इसके फलों को खाने से प्यास शांत होती है। शहतूत की छाल और नीम की छाल को बराबर मात्रा में कूट कर रख लें। इसे आवश्यकता अनुसार पानी मिलाकर पेस्ट बनाकर चेहरे पर लगाएं। पिंपल्स खत्म हो जाएंगे।
जंगली फलों के औषधीय गुणों के संदर्भ में रोचक जानकारियों और परंपरागत ज्ञान का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले 15 सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश),डांग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक विज्ञान की मदद से प्रमाणित करने का कार्य कर रहें हैं।