उस दिन मैं चांदनी चौक से गुज़र रहा था। बहुत दिनों बाद इस रास्ते से होकर जा रहा था। ये रास्ता मेरे लिए नया नहीं था। लेकिन आगे जो कुछ होने जा रहा था वो नया था… और मैं उससे बेख़बर था… दिग्विजय अपनी रफ़्तार में था… हम दोनों बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे… अचानक एक हाथ ने हमें रुकने को मजबूर कर दिया… इस हाथ के पीछे का शख़्स बेहद अजीब था… हालांकि ऐसे लोगों से मुलाक़ात होती रहती है… लेकिन ये अनुभव बिल्कुल नया था… वो कौन था.. नहीं मालूम लेकिन वो क्या था.. ये उसके पहले अल्फाज़ से ही पता चल गया… उसने कहा “बाबू जी चलोगे क्या” कहने के तरीके में तकल्लुफ कम… एक ऑफर ज़्यादा नज़र आ रही थी… मैनें पूछा कहां तो उसने जवाब दिया कही भी ले चलो । खुश कर दूंगी मैं आश्चर्य चकित रह गया पूछा कौन हो तुम । जवाब था अलिशा . बात समझ में आयी तो पूछा कौन मर्द या औरत तो या फिर इन दोनो से अलग । तो जवाब मिला बाबू जी मै गे हू गे । पूछा क्या करते हो तो पता चला धंधा , कैसा तो पता चला की हम भी तवायफो की तरह ही लोगो को खुश करते है। फिर मैने उसके जात के बारे में पूछा तो आश्चर्य चकित रह गया। जो बताया वो सब आप के सामने है। पर अजीब है आप भी जान लीजिए । दिखने में तो मर्द होते है । पर तरीके औरते जैसे होते है । ना मर्द कहेगे जायेगे और ना ही औरत और ना ही किन्नर इनको समाज गे कहता है । इनका कहना है कि अपना धंधा करते है, जैसे तवायफ करती है। समाज का ये वर्ग कही भी मिल सकता है ऐसे लोगो की समाज मे संख्या बढ़ती जा रही है इनसे दिल्ली में किसी भी रेड लाइटो पर मुलाकात हो सकती है । इनको लड़कियों से नफरत और लडको से प्यार होता है । ये लोग अपना लिंग परिवर्तन करा रहे है। और सबसे बडी बात है ये लोग आज कल तवायफो के धंधे में उतर आये है। हो सकता है यह वेस्टर्न में मान्य हो पर हमारी सस्कृती और सभ्यता ने कभी स्वीकार नहीं किया है। इनकी संख्या भी बढती जा रही है । हो सकता है। कुछ लोग इनकी संख्या गिनाये की ये कितने है और पहले भी थे । लेकिन सच तो ये है कि ये न तो तब फैशन था और ना ही शौक । सुना है कही कही तो इनके आरक्षण की मांग भी उठी है । तो यह एक नयी शुरुवात है, जो खतरनाक है । इसी लिये एक सोच सताती है कि इस बढते घटते लिंगानुपात में इनका कितना अनुपात होगा और अगर कभी आने वाले 10-20 सालो में आरक्षण की आधी की हवा इंन्हें भी लग गयी तो स्थिती क्या होगी । यह भले ही आज वेस्टर्न लाइफ में एक फैशन हो लेकिन समाज में यह एक दीमक की तरह है । जिस पर शोध करने की ज़रुरत है एक बार रुकिये और इन गे पर गौर कीजिए जो इंसान होते हुये भी ना तो आदमी है और ना ही औरत और ना ही किन्नर । आखिर जिन में यह स्वभाव कहा से पनपता है.। क्या हम इसे यू ही चलने दे । वो रात मुझे काफी सोचने पर मजबूर कर दी । उनके और उनके घरो के बारे में जहां वो लोग रहते है। इस पर शोध की बात मैंने इस लिये उठाया है क्या हमारी नैतिकता का पतन का परिणाम है या कुदरत का हमसे मजाक जिसे आज पश्चिमी सभ्यता खुलकर स्वीकार कर रही है । अगर यह हमीरी गलतियो का परिणाम है तो हमें सीखने की जरुरत है और सचेत होने की भी । ताकि आने वाली पीढि में इनकी सख्या बढ़ने के बजाय कम हो , और एक नयी जात का जन्म होने से पहले ही इस पर अकुंश लग सके वर्ना भविष्य की रुप लेखा में इनका अपना अलग ही योगदान होगा।
सर्वेश मिश्रा