भले ही मुख्यमंत्री मायावती ने विधानसभा चुनाव के मौके पर विरोधियों को चित करने की गर्ज़ से राज्य पुनर्गठन के प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी दिलाई हो, लेकिन राज्य विभाजन का मुद्दा काफी पुराना है। विभाजन की मांग देश की आजादी की जंग के दौरान भी शिद्दत से उठती रही है। भारत की स्वतंत्रता के पहले लगभग 565 छोटी-छोटी रियासतें और सूबों में बंटा था, जिसके अपने फायदे कम नुकसान ज्यादा थे। इसको लेकर लोगों ने अलग -अलग तरीकों से अपना विरोध जताया था। अगर देखे तो स्वतंत्रता के बाद लौह पुरष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने फौलादी इरादों से 1948 में भारत में निजाम की रियासत का अंत कर दिया। उस समय राज्यों की संख्या 14 थी।
1950 में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया था। इसके बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। यही नहीं 1930 में लंदन की गोलमेज सम्मलेन में हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि भाई परमानंद ने प्रदेश के विभाजन का मुद्दा उठाया था। देखा जाये तो सभी राज्य प्राकृतिक तौर पर अपनी-अपनी तरह की संपदा से सम्पन्न थे, उसके बावजूद भी राजनीति के चलते समय-समय पर नदी, जल को लेकर कर्नाटक एवं तमिलनाडु में टकराहट होती रही है यहीं नहीं कभी पानी को लेकर तो कभी सीमा को लेकर को कभी भाषा को लेकर और इन चीजों को लेकर हमारे नेता अपने राजनितिक स्वार्थों को फलीभूत करते आये हैं। जब से राजनीत में इनकी महत्वाकांक्षा बढ़ी है तब से नए एवं छोटे राज्यों के गठन का तर्क देने में ये जुट गए और बड़े राज्यों के नुकसान अपने हितों को साधते हुए गिनाने लगे। ऐसे में विकास के नाम पर हमारी
राजनितिक पार्टियों ने राज्यों को छोटे-छोटे जिलों में बाटना शुरू कर दिया और इसी क्रम में, 1950 से लेकर अब तक यानि २००० तक 15 राज्यों का गठन किया जा चुका है। सन २००० में मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश को काट कर क्रमश छत्तीसगढ़, झारखण्ड ,उतरांचल का गठन किया गया | विकास के नाम पर राज्यों का बटवारा तो कर दिया गया लेकिन इन राज्यों की प्रगति वाही की वही की वही धरी रह गई। उधर आंध्रप्रदेश के 10 जिलों को मिलाकर अलग तेलंगाना राज्य की मांग १९६९ से बलवती होती जा रही है इस राज्य की मांग को लेकर काफी संघर्ष हो रहा है।
तेलंगाना की मांग की मांग को लेकर तूफान अभी थमा ही नहीं था कि उत्तर प्रदेश की मुख्मंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश को चार भागों क्रमशः हरित प्रदेश (22 जिले), अवध प्रदेश (14 जिले), बुन्देलखण्ड (07 जिले) एवं पूर्वांचल (32 जिले) में बांटने की कवायद कर एक तीर से कई निशाने साधे है और इसे विधानपरिषद में पारित भी करा लिया है। ऐसे में उत्तरप्रदेश का विभाजन हो या न हो लेकिन मायावती यह बात भली भाति जानती हैं की विधानसभा चुनाव सर पर है ऐसे में राज्य पुनर्गठन का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में लाकर एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है। गौर करने वाली बात यह है कि यदि प्रदेश का भूगोल बदला तो राज्य का सियासी स्थितिया बदल जाएँगी जिसमे आम जनता सहित राजनितिक पार्टियों को भी नए समीकरणों और नए मुद्दों से जूझना पड़ेगा। नजर डाले तो रालोद भी काफी समय से इस मुद्दे के सहारे कई सीटो पर चुनाव जीतती रही है लेकिन अलग राज्य का मुद्दा नहीं हो पाया।
जिस प्रकार मायावती ने राज्य के बटवारे के प्रस्ताव को विधानपरिषद में पास करा लिया है तो इससे नहीं लगता है कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव को पास करने में कोई दिक्कत आएगी। यदि मायावती चार राज्यों के बटवारे का प्रस्ताव पास करा लेती है तो मुख्यमंत्रियों की संख्या बढ़ेगी जो बसपा के पाले में जायेगा ऐसे में विगत् 7 वर्षों में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी जो उत्तरपरदेस के दशा और दिशा बदलने में कमाल नहीं दिखा पाए ऐसे में उनकी क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जायेगा? राहुल को नई रणनीति में उलझाना भी एक सोची-समझी रणनीति है। यदि केन्द्र मानी तो आंध्रप्रदेश में ऐसा राजनीतिक तूफान खड़ा होगा जिसे संभालना भी मुश्किल हो जायेगा। इसके
अलावा इसके साथ ही अन्य राज्यों केगठन की मांग का पिटारा भी खुल जायेगा। गोरखालैंड, मिथिलांचल, ग्रेटर कूच,
बिहार, विदर्भ, भोजपुर सौराष्ट्र, त्रावणकोर, कामतपुर, कुर्ग, कश्मीर, लद्दाख ऐसे क्षेत्र हैं जहां काफी समय से पृथक राज्य की मांग होती रही है। कई राजनीतिक दल एवं नेता तो तेलंगाना की मांग से उठे तूफान का फायदा उठाने की नीयत से पहले ही मैदान में उतर चुके हैं। मसलन गोरखालैंड के लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा सुप्रीयो विमल गुरूंग, विदर्भ को महाराष्ट्र से अलग करने के लिए कांग्रेस नेता बिलास मुन्तेमवार ने सुगबुगाहट पैदाकर प्रधानमंत्री से मुलाकात की, हरित प्रदेश रालोद अध्यक्ष, चौधरी अजीत सिंह, बुन्देलखण्ड को ले मायावती ने प्रधानमंत्री से मिलने का मन बनाया वहीं बुन्देलखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष राजा बुन्देला ने यात्रा पर निकलने की घोषणा भी कर दी थी। ऐसा लगता है अब राजनेताओं के पास चुनाव लड़ने के गंभीर मुद्दे खत्म हो गए है? चुनाव लड़ने का आधार जहां अशिक्षा, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी को मिटाना होना चाहिए। वहाँ प्रदेश विभाजन को ले सभी राजनीतिक पार्टियां सियासत कर रही हैं। हांलाकि मायावती ने इस विभाजन को सर्वजन हिताय के रूप में बताया है लेकिन ये तो दूर की बातें हैं|सत्ता के लालची दिखावे के लिए घड़ियाली आंसू और फुल नोटंकी से भी बाज नहीं आ रहे है। इन्हें सिर्फ सत्ता की मलाई खाने की आदत जो पड़ गई है।
होना यह चाहिए कि नये राज्यों के गठन के किसी भी सुझाव को मानने के बदले केन्द्र एवं राज्य ऐसे पिछडे क्षेत्रों के लिए विशेष पैकेज के विकास करे। ऐसे अंगों के विकास के लिए उनकी जवाबदेही तय की जाए। भारत के पहले गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने न सिर्फ देशी रियासतों का भारत में विलय किया बल्कि एक राष्ट्र का दर्जा भी प्रदान किया यही नहीं जो काम भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु नहीं कर पाए वो काम पटेल ने किया। आज हमें उनके योगदानो को नकारने के बजाये उन्हें याद कर भारत के बढ़ते विभाजन की मांग पर फिर से पुनर्विचार की जरूरत है ऐसे में अब वक्त आ गया है कि हमें राज्यों के पुनः विघटन को हर कीमत पर फौलादी इरादों केसाथ फिर से किसी को पटेल बन कर रोकना होगा।
दिलीप पाठक के साथ अम्बरीश द्विवेदी
इंडिया हल्ला बोल