मुझे 18 साल की उम्र में वोट डालने का अधिकार मिल गया था. मैंने एक-दो बार वोट डाला भी, लेकिन अब की बार मैंने वोट नहीं डाला, आगे डालना भी नहीं चाहता.
चुनाव आयोग, सरकार, राजनीतिक दल, तमाम एनजीओ सभी चाहते थे कि मैं वोट डालूं लेकिन मैंने वोट नहीं डाला. और मैं इस अपराध के लिए शर्मिंदा भी नहीं हूं.
सरकार और चुनाव आयोग ने मतदान के प्रति जागरुकता लाने के लिए तमाम कार्यक्रम चला रखे हैं. उन पर करोड़ों रुपया खर्च भी होता है. इस सबके बावजूद मैं वोट नहीं डालना चाहता.
हालांकि देश के संविधान ने मेरे को अधिकार दिया था कि मैं अपने वोट का इस्तेमाल एक अच्छी सरकार को चुनने के लिए करूं लेकिन वर्तमान वक्त में जो हालात हैं उनमें मैं और मेरे जैसे लाखों युवा वोट नहीं डालना चाहते.
कारण
1. राजनीति में अधिकतर वे लोग आते हैं जो व्यवसाई होते हैं. उनका राजनीति में आने का मकसद केवल अपने व्यवसाय में फायदा उठाना होता है.
2. नेता लोग क्या काम करते हैं जिससे उनके परिवार की आजीविका चलती है. अधिकतर नेता कोई काम नहीं करते इसके बावजूद उनकी संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है.
3. राजनीति में वो लोग भी आते हैं जो किसी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके होते हैं. घर पर मन नहीं लगेगा शायद ये सोचकर राजनीति में आ जाते हैं. हजारों की तादाद में आईएएस और आईपीएस भी राजनीति में अपनी किस्मत आजमाते हैं.
4. राजनीतिक दलों के द्वारा चुनाव लड़ने के लिए टिकटों के बेचने की बातें कई बार सामने आ चुकी हैं. अब आम जनता मानने लगी है कि टिकट बेचे जाते हैं. जो ज्यादा पैसा देता है वो टिकट खरीद लेता है.
5. अभी तक जनता मीडिया पर भरोसा करती थी लेकिन पेड न्यूज़ जैसी बातें सामने आने के बाद अब ये साफ हो गया है कि कई मीडिया हाउस पैसा लेकर किसी पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में खबर छापते या दिखाते हैं.
6. कई सीटें आरक्षित कर दी गई हैं. सुरक्षित सीट कहा जाने लगा है ऐसी सीटों को. टिकट वितरण में आरक्षण की बात फिर भी समझ में आती है लेकिन सीट को आरक्षित करना क्या लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ नहीं है.
7. दागी प्रत्याशी आराम से चुनाव लड़ते हैं. जिनके खिलाफ दो-चार दर्जन मामले चल रहे होते हैं वो भी हाथ जोड़कर वोट मांगते हैं. इनमें से अधिकतर जीत भी जाते हैं. ऐसे लोगों को क्यों तो आयोग चुनाव लड़ने की इजाजत देता है और क्यों राजनीतिक दल टिकट देते हैं. ये समझना मुश्किल हो जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या फिर अपराधियों का राजनीतिकरण.
8. कई मर्तबा ऐसा भी होता है कि निर्वाचन क्षेत्र से कोई बाहरी प्रत्याशी चुनाव लड़ता है, जीतता है और फिर पांच साल तक चेहरा भी नहीं दिखाता.
9. कई नेता अनपढ़ होते हैं. कई तो ऐसे होते हैं कि अपनी शपथ तक नहीं पढ़ पाते.
10. राजनीति में जनता पांच साल के लिए किसी सांसद या विधायक को चुनती है. उसको तनख्वाह मिलती है. सब कुछ एक नौकरी की तरह होता है. फिर राजनीति में रिटायरमेंट की उम्र क्यों नहीं होती.
11. क्या सफेद कुर्ता पायजामा और उस पर नेहरू जैकेट भारतीय राजनीति का ड्रेस कोड हैं.
12. नेताओं को इतनी अधिक सुरक्षा की क्या जरूरत है. जिस जनता ने उनको चुना है उसी से इतना अधिक भय क्यों.
13. कई मर्तबा जनता किसी पार्टी को वोट देती है…वो पार्टी अगर सरकार बनाने की हालत में नहीं होती तो किसी अन्य पार्टी को समर्थन देकर या लेकर सरकार बनाती है. जबकि उस पार्टी को वोट देने वाली जनता ऐसा नहीं चाहती थी. इसके बारे में पहले से जनता को बताया भी नहीं जाता हमेशा कहा जाता है कि हम अपने बल पर सरकार बनाएंगे, किसी को समर्थन देंगे या लेंगे नहीं.
14. अगर 100 वोटर हैं और तीन लोग चुनाव लड़ रहे हैं. दो लोगों तो तीस-तीस वोट मिलीं और तीसरे को चालीस तो तीसरा चुनाव जीत जाता है जबकि साठ फीसदी जनता उसको नहीं चाहती.
15. वोट देकर नेता चुनने के बावजूद उसी नेता से मिलने के लिए घंटों या फिर दिनों, हफ्तों तक इंतजार करना पड़ता है. नेताजी जनता से मिलने के लिए हमेशा व्यस्त रहते हैं.
16. प्रत्येक राजनीतिक दल केवल घर्म, जाति, आरक्षण के नाम पर वोट मांगता है. पिछडा, अति पछड़ा, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, जाने किसे-किसे आरक्षण देना चाहते हैं नेता. अपने वोट पुख्ता करने के चक्कर में नेता जनता को आरक्षण के नाम पर बांट रहे हैं.
राइट टू रिजेक्ट
अब ये सोचने का वक्त है कि संसद या विधानसभाओं में बैठने वाले कई नेता क्या वास्तव में जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं.
मुझे नहीं लगता कि इनमें से कई यही मायनों में जनता के वास्तविक प्रतिनिधि हैं. देश की जनता को ‘न’ कहने का अधिकार भी मिलना चाहिए ताकि वो ये बता सके कि हां हम इस वैलेट लिस्ट में से किसी को इस काबिल नहीं समझते कि उसे अपना प्रतिनिधि चुन सकें.
अगर कोई सांसद या विधायक काम नहीं कर रहा या फिर बेईमानी कर रहा है तो उसे वापिस बुलाने का अधिकार भी जनता को मिलना चाहिए.
वरूण कुमार