विश्व की भीषणतम औद्योगिक गैस त्रासदी का सामना कर चुके पीडि़त परिवार नई पीढ़ी की समस्याओं से भी आहत हैं। सम्मान और स्वाभिमान से जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे गैस पीडि़तों के विकलांग बच्चे आज भी पर्याप्त इलाज,मुआवज और पेंशन से वंचित हैं। इन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयासों में गैस पीडि़त माता-पिता दिन-रात घुले जा रहे हैं। आखिर क्या होगा इनका?
गैस कांड के बाद सबसे अधिक भयावह हालात का सामना यदि कोई कर रहा है तो वह है यह निःशक्त बच्चे। तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे विकलांगता का दंश झेल रहे इन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के कहीं कोई पुख्ता इंतजाम 26वर्ष बाद भी नहीं हो सके हैं। जबकि इनमें से कई ऐसे बच्चे हैं जो समुचित आधुनिक उपचार से पूरी तरह स्वस्थ्य हो सकते हैं।
इनके अभिभावकों के मन तो विश्वास है कि इनके बच्चे एक दिन अपने पैरों पर खड़े होकर सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे पर लगता है शासन-प्रशासन को इन बच्चों को लेकर कुछ न कुछ संदेह जरूर है तभी तो गैस त्रासदी के26 वर्ष बाद भी इन विकलांग बच्चों की सुध नहीं ली गई। न तो इनके लिए कोई स्पेशल अस्पताल ही खुल सका और न ही इनके पुनर्वास के बेहतर इंतजाम हो सके।
इन बच्चों के माता-पिता का कहना है कि गैस कांड के बाद निःशक्तता का अभिशाप लेकर जन्में बच्चों को विशेष पेंशन और उपचार योजना चलाई जाना चाहिए। सरकार ऐसे उपाय करे कि ये बच्चे विकलांगता से मुक्त हो आत्मनिर्भरता का जीवन जी सकें।
भविष्य की चिंता: यूनियन कार्बाइड के जहर की त्रासदी को झेलने के बाद अभी भी ऐसे कई परिवार हैं जो नई पीढ़ी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। इनका कहना है कि विकलांग बच्चों के परिवारों को निराशा और हताशा से बचाने के लिए सही व पूरे इंतजाम एक ही जगह पर उपलब्ध कराये जाने चाहिए।
भटक रहे गैसपीडि़त अभिभावक: इन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने को बेताव माता-पिता घर से अस्पताल या पुनर्वास स्थल तक लाना-ले-जाना भी बड़ी मुश्किल का सामना करते हैं। सुगम परिवहन सुविधा न होने के कारण कई बच्चे घर में बिस्तर पर पड़े रहने को विवश हैं। इन बच्चों के लिए फिजियोथैरेपी, आक्युपेशनल थैरेपी और स्पीच थैरेपी के साथ ही स्पेशल एजुकेशन की आवश्यकता प्रमुख रूप से होती है लेकिन गैस त्रासदी की भयावहता और इन बच्चों की हालत को देखने के बाद भी राजधानी में आज तक इस प्रकार की कोई भी व्यवस्था एक ही स्थान पर न होने से गैस पीडि़त भटक रहे हैं।
हालात भयावह: गैस त्रासदी का भयानक हादसा तो हो गया, लेकिन उससे कहीं ज्यादा भयावह हालात अभी भी गैस पीडि़तों के बने हुए हैं। ना तो वे पूरी तरह स्वस्थ्य जीवन जी पा रहे हैं और ना ही उन्हें राहत देने के ही पर्याप्त व पुख्ता बंदोबस्त ही किये जा सके हैं। गैस त्रासदी की विभीषिका झेल चुके परिवार जिदंगी और मौत के बीच झूलने को मजबूर हैं। वे स्वयं तो इलाज के लिये अस्पतालों के चक्कर लगा ही रहे हैं अपने बीमार बच्चों को भी पूरी तरह ठीक करने के लिए परेशान हो रहे हैं। औद्योगिक त्रासदी मुल्क चलाने वाली सरकारों के लिए महज ऐसी अप्रत्याशित घटनाएं बनकर रह गई हैं जिनपर अचंभा जताने के अलावा कुछ नहीं किया जाता। अगर किया जाता तो भीषण त्रासदी के 26 साल बाद भी जो हालात हैं क्या वे होते? त्रासदी से जूझे गैस पीडि़त माता-पिता के विकलांग बच्चों के उचित उपचार की व्यवस्था का मामला भी न जाने कितने सालों और खींचा जाएगा। सत्तासीन लोगों के लिए भले खौफनाक मंजर को भुलाना आसान होता हो मगर इससे रूबरू होने वालों के लिए जिंदगी गुजार पाना बहुत मुश्किल बन जाता है।
दरअसल भोपाल गैस त्रासदी जैसी देश और दुनिया को हिलाकर रख देने वाली घटना के बाद भी सिर्फ चेहरे बदलने का खेल खेला गया। कभी किसी राजनीतिक पार्टी की सरकार आई तो कभी किसी की। पर गैस पीडि़तों के जख्मों पर किसी ने मरहम लगाने की जरूरत नहीं समझी। गैस कल्याण संचालनालय बनाया गया और मुआवजे के नाम पर टुकड़ों में राहत राशि भी बांट दी गई। अस्पतालों के नाम पर ऊंची इमारतें खड़ी कर दी गईं पर और समझ लिया कि गैस पीडि़तों के जख्म भर गए है। पर सच्चाई यह है कि गैस पीडि़तों के जीवन में कुछ बदलाव नहीं लाया जा सका है।
राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी: इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद भी गैस पीडि़तों और जहरीले रासायनिक कचरे के लिए माकूल व्यवस्था ना कर पाना राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी नहीं तो और क्या है? निःशक्तता की भेंट चाहे एक बच्चा ही क्यों न चढ़े उससे जुड़ी कई और जिंदगियां जीते-जी ही मौत के आगोश में समा जाती हैं। सबसे बड़ा सवाल जो बार-बार सोचने को मजबूर करता है कि आखिर इनके जख्मों पर अब तक मरहम क्यों नहीं लगाया जा सका……….।
कई गैस पीडि़त माता-पिता की संतानें आज स्पेशल चाइल्ड कहलाती हैं लेकिन उनके लिए कहीं भी कोई स्पेशल अस्पताल जैसे इंतजाम राजधानी में नहीं हैं। ना ही किसी प्रकार का कोई अभियान चलाया गया, ना ही कोई शिविर ही लगाया गया जिससे गैस पीडि़तों के निःशक्त बच्चे आत्मनिर्भर हो सकें।
स्पेशल अस्पताल की दरकार: स्पेशल कहे जाने वाले बच्चों के लिए स्पेशल स्कूल तो बहुत खुल गये पर उपचार के लिए स्पेषल अस्पताल एक भी नही। स्पेशल स्कूलों की फीस जमा करना भी इन गैसपीडि़त माता-पिता के लिए दुष्कर हो रहा है। असाध्य रोगों विशेषकर सेरेब्रलपाल्सी से जूझ रहे बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने और उन्हें विकलांगता के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के लिए स्पेशल अस्पतालों की जरूरत आवष्यकता है जहां एक ही छत के नीचे निःषक्त बच्चों में सशक्त होने का आत्मविष्वास जगाया जा सके। राजधानी में ऐसी कोई ठोस व्यवस्था देश में नहीं है। निःशक्त बच्चों के माता-पिता भी इलाज के लिए भटकने को विवश हैं।
स्पेशल बच्चे कौन: ऐसे बच्चे तो शारीरिक विकास में सामान्य बच्चों से पीछे रह गए हैं। इसे कुदरत की मार कहें या चिकित्सा विज्ञान की अनदेखी का नतीजा कि समाज में सेरेब्रल पाल्सी, आटिज्म और पोलियो मायलाइटिस की बीमारी के शिकार बच्चों की संख्या बढ़ रही है। इनमें से कई बच्चे ऐसे हैं जो समय पर उपचार मिलने पर अपने दैनिक जीवन के कार्य करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए हम अभी स्पेशल स्कूलों पर निर्भर है जबकि आवश्यकता स्पेशल अस्पताल की है। जहां बच्चे को सामान्य जिंदगी जीने के लायक बनाया जा सके।
स्पेशल अस्पताल क्यों जरूरी: मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रसित मरीजों की सही संख्या का अंदाज लगाना कठिन है फिर भी उपलब्ध सूचना के आधार पर यह पाया गया है कि प्रति हजार नवजात शिशु में से छह ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं जो मस्तिष्क पक्षाघात से पीडि़त होते हैं। इससे इस बीमारी की भीषणता का पता चल जाता है। दिमागी पक्षाघात काफी आम विकलांगता है जो पोलियो के बाद दूसरे स्थान पर है। यह मस्तिष्क के चालक केन्द्र में खराबी के कारण होता है। इस बीमारी से पीडि़त बच्चों में आयु के अनुसार मानसिक विकास नहीं होता। फलस्वरूप इन्हें सामान्य जिंदगी जीने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। स्पेशल अस्पताल के माध्यम से जन्मजात विकृति के शिकार बच्चों को प्रशिक्षण और उपचार उपलब्ध कराया जा सकता है।
एक और बड़ा कारण यह कि हमारे देश में निःशक्त बच्चों के माता-पिता को यह पता ही नहीं होता कि उनका बच्चा अच्छा भी हो सकता है। या वे अपने बच्चे को कहां ले जाएं या वह कैसे ठीक हो सकता है? एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद डाक्टरों के अपने दावे हैं। माता-पिता को जब कुछ नहीं सूझता तो वे चमत्कार की आस लगाये निःशक्त बच्चे को घर पर ही पड़ा रहने देते हैं। जबकि इनमें कई बच्चे ऐसे होते हैं जो उचित देखभाल और उपचार के चलते ठीक हो सकते हैं। लेकिन, सही मार्गदर्शन नहीं मिलने से इन बच्चों को सामान्य बच्चों की तरह जीवन जीने में काफी मुश्किलें आती हैं। विदेशों में हो रहे शोध और अत्याधुनिक तकनीक का लाभ मिलने से भी ये बच्चे वंचित हैं। स्पेशल अस्पताल इस कमी को दूर कर सकते हैं।
क्या लाभ होगा? हमने पोलियो को नियंत्रित करने के लिए तो तमाम उपाय किये और काफी हद तक सफल भी रहे हैं लेकिन पोलियो से मिलते-जुलते कई तरह के रोगों की जकड़न से अभी नौनिहाल आजाद नहीं हो सकें है। स्पेशल अस्पताल निःशक्त बच्चों को उपचार के साथ ही समाज में जागरूकता का वातावरण भी निर्मित करने में सहायक होंगे। यही नहीं निःशक्त बच्चों के माता-पिता और परिवार के लिए मार्गदर्शन प्रदान करने का कार्य भी करेंगे। ताकि निःशक्त बच्चों के प्रति सम्मान का माहौल बन सके।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ: विकलांगता के अभिशाप से मुक्ति के लिए खास व्यवस्था नहीं है इसके लिए अलग सेन्टर होना चाहिए जहां सेरेब्रल पाल्सी, पोलियो मायलायटिस और मस्कुलर डिस्ट्राफी से पीडि़त बच्चों की खास तरीके से देखभाल की जा सके और इन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सके। वर्तमान में जो इलाज है वह काफी महंगा है। इसलिए विकलांग बच्चों के उपचार के लिए उनके माता-पिता को भी आर्थिक सहायता का प्रावधान किया जाना चाहिए।
–डा. टी.एन. दुबे न्यूरोलाजिस्ट
सेरेब्रल पाल्सी, आटिज्म और मस्कुलर डिस्ट्राफी का होम्योपैथी में लम्बा इलाज है। लगातार दवाईयां सेवन करने वाले 10 में से 7 बच्चे ही रिकवरी कर पाते हैं। प्रापर उपचार की कोई व्यवस्था नहीं है। इलाज के लिए ऐसे संस्थान बनाये जाना चाहिए ताकि ये बच्चे स्वयं को बीमार न समझें इनमें आत्मविश्वास जागे। इस संबंध में रिसर्च चल रहा है। ऐसी मेडिसिन की खोज की जा रही है ताकि लाइलाज समझे जाने वाले रोग को इलाज हो सके।
— डा. वी.के. जैन होम्योपैथी
सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों पर अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। आयुर्वेद में कई तरीके बताये गए है। कश्यप संहिता जिसमें धूम्र चिकित्सा के बारे में बताया गया, पर काम किया जाए तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। इसके लिए बहुत बढि़या सेटअप की जरूरत है। प्रशासन इस मामले को गंभीरता से ले और बजट को सही रूप में खर्च किया जाए तो रिजल्ट मिलेगा। आयुर्वेद में कई पीसी स्कालर्स हैं वे भी पूरी तरह से काम नहीं कर पा रहे हैं। आयुर्वेद में जितना काम होना चाहिए वह नहीं हुआ है।
— डा. संजय शर्मा पंचकर्म विशेषज्ञ
मंदबुद्धि, मूकबधिर बच्चे भी आयुर्वेद पद्धति से आत्मनिर्भर हो सकते हैं। जड़ी-बूटियों, मालिश से कम खर्च में उपचार हो सकता है। इसके लिए उपचार एवं अनुसंधान केन्द्र की जरूरत है जिसे पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि सभी को आयुर्वेद का लाभ मिल सके।
– वैद्य के.एल. बासरे लकवा, कैंसर रोग विशेषज्ञ
जंगल में पाई जाने वाली कई जड़ी-बूटी काफी कारगर हैं। आयुर्वेद में केवल मृत्यु को नहीं रोका जा सकता बाकी सभी रोगों का उपचार किया जाता है लेकिन इसके लिए पूरी व्यवस्था होना जरूरी है।
— वैद्य जमुना प्रसाद आयुर्वेद रत्न
सेरेब्रल पाल्सी या जन्मजात विकृति से ग्रस्त बच्चों को मेडिकल टीम की आवश्यकता होती है। इन बच्चों को अत्यधिक मदद और फायदा पहुंचे इसके लिए निश्चित योजना के अनुसार स्पेशल अस्पताल काम करेगा। चूंकि यह रोग न होकर एक प्रकार की अवस्था होती है जिसे उचिव उपचार और पर्याप्त देखभाव व खानपान से बदला जा सकता है। सीपी बच्चे यदि इलाज विहीन रह गए तो बच्चों में रेंगने वाली विकृति बढ़ती चली जाएगी और वह पूरी जिंदगी दूसरों पर ही निर्भर रहकर जीवन गुजारने को विवश हो जाएगा। सीपी बच्चों के चिन्ह व लक्षण अनेक होते हैं इन बच्चों में सुधार के परिणाम भी जल्द नहीं मिलते। इलाज के नए ढंग की खोज की गई है। नए-नए तरीकों की खोज जारी है। जरूरत है इनके पुनर्वास, उपचार और प्रशिक्षण संबंधी विचारों में एकरूपता लाने की और इलाज में अत्याधुनिक तकनीकों का लाभ इन बच्चों को दिलाने की।
— डा. सांई प्रसाद संचालक, विकलांग एवं स्किन रिसर्च सेंटर
एड्स और कैंसर जैसे लाइलाज रोग पर तो करोड़ों रूपए खर्च किये जा रहे हैं लेकिन और भी कई लाइलाज रोग हैं जिनकी अनदेखी की जा रही है। आखिर ऐसा क्यों?
इन्हें चाहिए स्पेशल अस्पताल!
‘‘क्योंकि सब कुछ संभव है’’……कुछ यही सोचकर बड़े ही अरमान से उस मां ने अपने पहले बेटे का नाम संभव रखा। ताकि इस प्रतिस्पर्धी युग में उसके लिये कुछ भी असंभव न हो, लेकिन, कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। पिता का दुलार और मां के ममता भरे आंचल के बजाय संभव को पैदा होते ही मिला वेन्टीलेटर। जब 39 दिन बाद वह अस्पतालों की दीवारों से लड़कर बाहर आया तो लगा जैसे इतनी सुंदर दुनिया उसके लिये ही बनाई गई है।
रात-रातभर जागना और पैर पटककर रोते हुए वह दो साल का हो गया। लेकिन, अपने पैरों पर खड़े होना तो दूर बैठना तक संभव नहीं हो सका। सेरेब्रल पाल्सी की जकड़ से आजाद होने के लिए आज वह झटपटा रहा है। उसके गैस पीडि़त माता-पिता इलाज के लिए कई जगह भटके। कई अस्पतालों और धर्मस्थलों तक में एडि़यां रगड़ी, जहां भी पता चलता कि उनका लाड़ला इकलौता बेटा ठीक हो सकता है। वहां बड़े ही आस-विश्वास में उसे गोद में उठाये माता-पिता चल देते। अब वह दूसरे बच्चों की तरह न तो स्कूल ही जा पा रहा है और न ही खेलकूद सकता है। फिजियोथैरेपी से उसका इलाज किया जा रहा है लेकिन कब तक ठीक हो जाएगा, कोई नहीं जानता।
अब वह चार साल का हो गया और स्पेशल स्कूल में जाने लगा। यहां उसे आत्मनिर्भर बनाने की कसरत की जाने लगी। कई जगह संपर्क करने के बाद पता चला कि सेरेब्रल पाल्सी का कोई ठोस इलाज नहीं है और न ही यहां इतनी उच्चस्तरीय चिकित्सा की व्यवस्था है कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
सुना है कि दुनिया में सब कुछ संभव है तो फिर सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे का उपचार कैसे असंभव हो सकता है?क्या वह भी और बच्चों की तरह कामकाज नहीं कर सकता? क्या वहं भी सपने देखने और उन्हें साकार करने की क्षमता प्राप्त नहीं सकता? क्या उसे निःशक्तता के अभिशाप के साथ ही जीना होगा? क्या उसकी जिंदगी वरदान नहीं बन सकती? कुछ ऐसे ही सवाल हैं जो हर उन माता-पिता के मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं जिनके बच्चे सेरेब्रल पाल्सी जैसे रोग से ग्रस्त हैं। क्या इन्हें कभी इनके सवालों का जवाब मिल सकेगा? ऐसे कई बच्चे हैं जो अपनी जिंदगी पराश्रित रहकर गुजारने को विवश हैं।
ऐसा ही कुछ हुआ खुशी के साथ। एक बेटे के बाद जब बेटी का जन्म हुआ तो घर में खुशियां मनाई गईं। बड़े-बुजुर्गों ने कहा- घर में लक्ष्मी आई है। नाम रखा गया खुशी। ताकि वह हमेशा खुश रहे और खुशियां बिखेरे। लेकिन, खुशी की अपनी जिंदगी में जैसे दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा है जैसे वह इस दुनिया में केवल घिसट-घिसट जीने के लिए ही आई है। माता-पिता को खुशी के उपचार के लिए लाखों रूपये चाहिए इसलिए वे हरदम उसके साथ उसके पास नहीं रह सकते। खुशी दिनभर आंसू बहाती रहती। रोते हुए उसे आठ साल बीत गये। पूरा परिवार मानसिक तनाव में और खुशी का शेष जीवन, जिंदगी और मौत के अधर में। अकेले खुशी ही इस दुःख में शामिल नहीं हैं। स्वाति (काल्पनिक नाम) की दास्तां भी कुछ कम नहीं। स्वाति का जन्म खुशियां नहीं, परिवार के लिए चुनौती लेकर आया। अब वह 30 वर्ष की हो गई है। जब तक माता-पिता कमाते थे, स्वाति की अच्छी देखभाल होती थी अब माता-पिता बूढ़े हो गये हैं और भाई-बहिनों की शादी हो चुकी है। स्वाति को रखने के लिए कोई तैयार नहीं! स्वाति का जीवन इस तरह कैसे पराश्रित रहकर गुजरेगा? यह चिंता बूढ़े माता-पिता को खाये जा रही है। यह दास्तां एक दो नहीं ऐसे हजारों बच्चों की है जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं।
पैरों पर खड़े होना कब होगा संभव !
मैं संभव……मेरे माता-पिता ने मेरा नाम शायद यह सोचकर रखा था कि मेरे लिये कुछ भी असंभव नहीं होगा। लेकिन, कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। पिता का दुलार और मां के ममता भरे आंचल के बजाय मुझे पैदा होते ही मिला वेन्टीलेटर। जब 39 दिन बाद में अस्पतालों की दीवारों से लड़कर बाहर आया तो लगा जैसे इतनी सुंदर दुनिया मेरे लिये ही बनाई गई है।
रात-रातभर जागना और पैर पटककर रोते हुए मैं दो साल का हो गया। लेकिन, अपने पैरों पर खड़े होना तो दूर बैठना तक संभव नहीं हो सका। सेरेब्रल पाल्सी की जकड़ से आजाद होने के लिए मैं झटपटा रहा हूं। मेरे गैस पीडि़त माता-पिता इलाज के लिए कई जगह भटके। कई अस्पतालों और धर्मस्थलों तक में एडि़यां रगड़ी, जहां भी पता चलता कि मैं ठीक हो सकता हूं। वहां बड़े ही आस-विश्वास में मुझे गोद में उठाये माता-पिता चल देते। अब में दूसरे बच्चों की तरह न तो स्कूल ही जा पा रहा हूं और न ही खेलकूद सकता हूं। फिजियोथैरेपी से मेरा इलाज किया जा रहा है लेकिन कब तक ठीक हो जाऊंगा, कोई नहीं जानता।
अब मैं चार साल का हो गया और स्पेशल स्कूल में जाने लगा। यहां मुझे आत्मनिर्भर बनाने की कसरत की जाने लगी। कई जगह संपर्क करने के बाद पता चला कि सेरेब्रल पाल्सी का कोई ठोस इलाज नहीं है और न ही यहां इतनी उच्चस्तरीय चिकित्सा की व्यवस्था है कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो सकूं।
मैंने सुना है कि दुनिया में सब कुछ संभव है तो फिर सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे का उपचार कैसे असंभव हो सकता है? क्या मैं भी और बच्चों की तरह कामकाज नहीं कर सकता? क्या मैं भी सपने देखने और उन्हें साकार करने की क्षमता प्राप्त नहीं सकता? क्या मुझे निःशक्तता के अभिशाप के साथ ही जीना होगा? क्या मेरी जिंदगी वरदान नहीं बन सकती?
सेरेब्रल पाल्सी का इलाज जरूरी
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती निःशक्त बच्चे
सेरेब्रलपाल्सी से पीडि़त बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन न तो अभी तक इस रोग का पुख्ता इलाज खोजा जा सका है और न ही इस संबंध में जागरूकता या मार्गदर्शन की कोई व्यवस्था की गई है। बच्चे किसी भी देश और समाज की पहचान होते हैं। इनकी मजबूती से ही राष्ट्र की मजबूती जुड़ी हुई है। हम कहते जरूर हैं कि बच्चे देश का भविष्य हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि देश को विश्व की महाशक्ति बनाने के लिए तो हम तत्पर हैं पर ‘‘देश के भविष्य’ की हालत को हम नजरअंदाज कर रहे हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसे हम युद्ध जीतने की बात करें और हथियारों की और से आंखें मूंदे बैठे रहें। आर्थिक समृद्धि के बाद भी बच्चों के जो हालात देश में हैं वे चैंकाने वाले हैं। केवल नियम बना देने भर से काम नहीं चलने वाला है। ठोस योजना बनाना और कड़ाई से उसका पालन कराना जरूरी है। तभी बच्चों की हालत में सुधार होगा। जब बाल मृत्यु दर कम करने, बाल सुधार और कुपोषण से मुक्ति के उपायों जैसे तमाम प्रयास किये जा रहे हों तो ऐसे में सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त (निःशक्त) बच्चों की संख्या बढ़ते जाना चिंता का विषय है।
सेरेब्रल पाल्सी अंग्रेजी नाम का संक्षिप्त रूप है- सी.पी.। जिसे हिन्दी में मस्तिष्क पक्षाघात कहते हैं। चूंकि यह रोग प्रायः जन्म के समय से रहता है अतः इसे जन्मजात लकवा या शिशु लकवा भी कह सकते हैं। सेरीब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों के शरीर की मांसपेशियां अकड़ी हुई, कड़क होती हैं। हाथ-पैर हिलाने-डुलाने में जकड़न होती है। यह रोग विकसित हो रहे मस्तिष्क में अनेक प्रकार की खराबियों या नुकसान की वजह से होता है।
फिर भी बच्चों को सेरेब्रल पाल्सी से बचाया जा सकता है इनमें कई ऐसे भी बच्चे होते हैं जिन्हें सही प्रशिक्षण और उपचार द्वारा आत्मनिर्भर भी बनाया जा सकता है, परंतु, बच्चे सेरेब्रल पाल्सी की चपेट में न आए, इसके लिए न तो कोई जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है और न ही इन बच्चों के ठीक होने के लिए सही मार्गदर्शन की ही कोई व्यवस्था है और तो और लाइलाज रोगों की चपेट में लोग न आयें इसके लिए अब तक किसी तरह की कोई ठोस नीति या योजना का भी अता-पता नहीं है। नतीजा सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे बढ़ रहे हैं जिस कारण एक पूरा परिवार हताशा, निराशा और उदासीनता के गहरे अंधकार में डूबता जा रहा है। ऐसे समय में जब हम जनसंख्या नियंत्रण की बात करते हैं और एक या दो बच्चों तक ही परिवार को सीमित रखने पर जोर देते हैं तब हम ये प्रयास क्यों नहीं करते कि बच्चे कम हों, लेकिन स्वस्थ्य हों। सही इलाज की व्यवस्था न होना और विशेषरूप से महिलाओं का जागरूक न होना भी एक बड़ा कारण है।
यह सचमुच उन परिवारों के लिए बहुत ही घातक और पीड़ादायी स्थिति होती है जब वे परिवार नियोजन को अपनाना चाहते हैं और उनमें पहला बच्चा ही सेरेब्रल पाल्सी से ग्रस्त होता है। उन माता-पिता की दयनीय हालत को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जब लोग एक या दो बच्चे ही रखना चाहते हैं जोर इस बात पर दिया जाना चाहिए कि जो भी बच्चे हों वे पूरी तरह चुस्त-दुरूस्त तंदुरूस्त हों। अस्पतालों में भी ऐसी व्यवस्था करना होगी कि कोई बच्चा सेरेब्रल पाल्सी जैसी निःशक्तता की चपेट में न आने पाये। क्या कभी यह सोचा गया कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की तरफ क्यों भाग रहे हैं? अफसोस कि सेरेब्रल पाल्सी से बच्चों को बचाने के लिए क्या ठोस उपाय होना चाहिए इस पर अभी तक न तो सार्थक पहल की गई और न ही ऐसा चिंतन किया गया कि किसी अच्छे नतीजे पर पहुंचा जा सके। लिहाजा सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे तो निःशक्तता भरा जीवन जीने को विवश हैं ही उनके माता-पिता भी विपरीत हालात से समझौता करने को मजबूर हैं। निश्चित ही ऐसे माता-पिता की ममता जब-तब रोती होगी।
प्रत्येक माता-पिता की यह प्रबल इच्छा होती है कि उनका बच्चा मजबूत और निरोगी हो, लेकिन जब इन माता-पिता को यह पता चलता है कि उनका बच्चा निःशक्तता की श्रेणी में आता है तो उनकी आत्मा उसे आत्मनिर्भर बनाने के लिए अवश्य ही कचोटती होगी। निःसंदेह ये बच्चे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए तो चुनौती बने ही हुए हैं। भागदौड़ से भरी प्रतिस्पर्धात्मक जिंदगी में इन्हें अपने पैरों पर खड़े करने को आतुर माता-पिता के लिए भी एक कठिन चुनौती पेश कर रहे हैं।
संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने की कोशिशें भी इस रोग की रोकथाम में सहायता नहीं कर पा रही हैं। मिलावटी खाद्य सामग्री, महंगाई और बढ़ते प्रदूषण ने ऐसे माता-पिता की चिंता और मुश्किलों को और बढ़ा दिया है जब वे चाहते हुए भी ऐसे बच्चों को इलाज और पढ़ाई की ओर प्रेरित नहीं कर पाते। क्योंकि अधिकांश माता-पिता को पता ही नहीं होता कि वे इन बच्चों के उपचार के लिए उसे कहां लेकर जायें? कई बच्चांे को तो सेरेब्रल पाल्सी रोग विरासत में मिल रहा है। भोपाल इसका जीता जागता उदाहरण है जहां भीषणतम औद्योगिक गैस त्रासदी से पीडि़त माता-पिता की अगली पीढ़ी के कई बच्चे सेरेब्रल पाल्सी से जूझ रहे हैं। विशेषज्ञों और कई संस्थाओं द्वारा इसकी पुष्टि कर दिये जाने के बाद भी ऐसे बच्चों के माता-पिता सही उपचार के लिए भटक रहे हैं। या कहें अंधेरे में तीर चलाने का काम कर रहे हैं। गैस त्रासदी के बाद भोपाल में कई अस्पताल बने, लेकिन निःशक्तता के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के लिए कभी कुछ करना तो दूर, सोचा तक नहीं गया। सबसे पीड़ादायक स्थिति उन माता-पिता की है जो एक बच्चा ही रखना चाहते हैं और चाहकर भी दूसरे बच्चे का पालन-पोषण नहीं पा रहे हैं क्योंकि पहले ही बच्चे के उपचार के चक्कर में वे पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। पुनर्वास केन्द्र भी इनके लिए कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। स्पेशल स्कूलों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। स्पेशल स्कूल कई जगह संचालित जरूर हो रहे हैं लेकिन आधी-अधूरी सुविधाओं के साथ वे ऐसे बच्चों के साथ पूरा न्याय करने में खुद को सक्षम नहीं पाते।
एड्स और कैंसर जैसे रोगों पर तो लाखों रूपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन बच्चों के भविष्य से जुड़े सेरेब्रल पाल्सी जैसे रोग पर शोध और सही इलाज की हम अनदेखी कर रहे हैं। आज समय की आवश्यकता है कि हम सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों की संख्या को बढ़ने से रोकें और ये प्रयास करें कि इन बच्चों का सही तरीके से इलाज कैसे हो सकता है। ये कैसे आत्मनिर्भरता की सीढि़यां चढ़ सकते हैं।
शक्तिशाली राष्ट्र के लिए निःशक्त
बच्चों को सशक्त बनाना अनिवार्य
निःशक्त बच्चों को आत्मनिर्भर बनाया जाना समय की आवश्यकता है। जिस तेजी यह समस्या समाज में बढ़ रही है उसी तेजी से इसके इलाज के उपाय करने के लिए डाक्टरों और सरकार को गंभीर व सजग होना जरूरी है। इस संबंध मे राष्ट्रीय स्तर पर एक परिचर्चा की भी जरूरत है ताकि विशेषज्ञ अपने अनुभवों का आदान-प्रदान कर कुछ सार्थक पहल कर सकें। ये बच्चे विशेषकर सेरेब्रल पाल्सी यानी मस्तिष्क पक्षाघात जैसे रोग की चपेट आने वाले बच्चे किसी से कमतर नहीं। जरूरत है सही दिशा में कारगर प्रयास करने की। लेकिन, इच्छाशक्ति में कमी की वजह से इन बच्चों का कल्याण नहीं हो पा रहा है।
कैसे लौटे नौनिहालों की मुस्कान
निःशक्त बच्चों को नया जीवन देने और उनके चेहरे पर मुस्कान लौटाने के मामले में मध्यप्रदेश एक कदम पीछे रह गया है। इस गंभीर मामले में छत्तीसगढ़ हमसे बाजी मार लेने में कामयाब रहा। यहां बात किसी प्रदेश की प्रतिस्पर्धा की नहीं हो रही है, लेकिन जब हम मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने का दावा करते हैं तब हमें हरेक पहलु पर विचार कर लेना होता है। यह इसलिए भी जरूरी है कि जिस मध्यप्रदेश में सरकार ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए निःशक्तजन पंचायत बुलाई उसी प्रदेश में निःशक्त बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने और उनके माता-पिता को प्रोत्साहित करने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किये जा सके। क्या होना चाहिए:
Meet me- I am sambhav
Meet me- I am sambhav. I guess my parents named me so because they believed in a proverb “Nothing is impossible even the word impossible is when stretched out souads like i-m-possible.” They want me to be a perfect example for this proverb. But destiny had its own plans. The day I was introduced to this world-it because a battle field for me. It seemed that god was eager to make me an over experienced person. Everyone gave me a warm welcome by admitting me in ICU and putting me up on ventilator, forcing me to enjoy the most advanced medical technologies for the initial 39 days of my life- WHAT A WELCOME TO THIS WORLD.
Well, after a long 39 days of struggle I was allowed to leave the battle field for the first time. Finally I was out of the ICU, out of nursing home, and was completely amazed to feel the fresh air. Really no one can compete with nature. The magic of fresh air is unmatched. No ventilator can ever compensate the feeling of natural breeze.
Crying whole night and struggling hard to snatch one more day for myself is my routine form past two years. Yes I am two year old now. Forget about walking on my own its still impossible to sit by myself. I am struggling hard to get myself frce from the custody of Cerebral Palsy. Neither my parents have left any stone unturned nor have they stopped putting efforts to help me out lead a normal life. Infinite visits from hospitals to hospitals. From one pilgrimage to the other is routine of my parents from past two years. They have touched every nook and corner just for a hope that one day they will see me leading a normal life, walking by my own and becoming an independent person. They still have a light of hope, light of possibility-trying to make it- SAMBHAV.
Now I am grown to 5 years in age and am admitted to a special school. They are trying to make me self reliant. After putting in all possible efforts, it was found that in India, neither there is any concrete cure for Cerebral Palsy nor is any advanced technology to make my dream come true.
But I have heard that everything is possible in this world, So why not the cure of a patient suffering from Cerebral Palsy—– Can’t I Work like other children—- Can’t I dream and put an effort to make them come true—-Can’t my life be a gift of God—– OR I am destined to suffer—–.
भावना श्रीवास्तव
भोपाल मप्र
इंडिया हल्ला बोल