वैज्ञानिकों के नाम एक खुला पत्र

श्रीमान वैज्ञानिक महोदय,

अब कई समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में सेरेब्रल पाल्सी से ग्रस्त बच्चों और उनके हालात पर मार्मिक लेख पढ़ चुकी हूँ। जिन्होंने मेरे दिलोदिमाग को झकझोर कर रख देने के साथ ही आंखें भी नम कर दीं। इसलिए मैंने सोचा सरकार और मीडिया को तो सभी पत्र लिखते हैं लेकिन मैं यह पत्र विशेष रूप से उन वैज्ञानिकों के लिए लिख रही हूं। जो मानव जीवन चक्र में कुछ नया और हटकर करने का दावा करते हैं। उम्मीद है आपके लोकप्रिय प्रकाशन के माध्यम से वे वैज्ञानिक इस पत्र को पढ़ेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे। ऐसे सभी वैज्ञानिकों से मेरा निवेदन है कि वे मनुष्य को अमर बनाने के उपक्रम तो करें लेकिन उन्हें ना भूलें जो आधुनिक विज्ञान के युग में भी निशक्तता भरा जीवन जीने को विवश हैं।

मेरी हार्दिक इच्छा है कि अगला नोबेल पुरस्कार उस वैज्ञानिक को मिले तो जन्मजात विकृतियां के शिकार बच्चों के जीवन में सुधार लाने के लिए कारगर व ठोस पहल करे। मानव को अमर बनाने के बजाय वैज्ञानिक महोदय ऐसा कुछ करें कि देश के लाखों नेत्रहीनों, मूक बधिर और मंदबुद्धि बच्चेों के जीवन में उजाला आ सके। हमें गर्व है कि हम उस युग में सांस ले रहे हैं जहां वैज्ञानिकों ने अपने अथक परिश्रम, लगन और इच्छाशक्ति से क्लोन तक बना लिये हैं और कई अबूझ पहेलियों को सुलझाने में सफलता पा चुके हैं, लेकिन जब मैं स्पेशल स्कूलों में बहुविकलांग बच्चों और उनके परिवार की पीड़ा को देखती हूँ। तो मन बहुत ही क्षोभ, और दुःख में डूब जाता है। मैं इस पत्र के माध्यम से सरकार विशेषकर वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य विभाग, डॉक्टरों और मीडिया का ध्यान विशेष बच्चों से जुड़ी ज्वलंत समस्या की ओर आकर्षित कराना चाहती हूँ। आष्चर्य की बात है कि हम पोलियो पर नियंत्रण तो पाना चाहते हैं लेकिन पोलियो से मिलती-जुलती या उस जैसे रोग से आंख मूदे बैठे हैं। जागरूकता और उचित उपचार की व्यवस्था न होने के कारण आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के युग में भी निःषक्त बच्चों की संख्या बढ़ रही है बावजूद इसके स्पेषल बच्चों के लिए एक भी स्पेशल अस्पताल तक नहीं है। यह पत्र निःशक्त बच्चों और उनके परिवार की पीड़ा को देखते हुए ही तैयार किया गया है।

सेरेब्रलपाल्सी से पीडि़त बच्चों की संख्या का बढ़ना चिंताजनक है, लेकिन न तो अभी तक इस रोग का पुख्ता इलाज खोजा जा सका है और न ही इस संबंध में जागरूकता या मार्गदर्शन की कोई व्यवस्था की गई है। स्वास्थ्य का मामला हो या शिक्षा का, पूरे देश में अलग-अलग मापदंड अपनाये जाते हैं। अब हिन्दी भाषी बेल्ट को ही ले लीजिए। राजस्थान में हड्डी विकारों से जकड़े सेरेब्रल पाल्सी के बच्चों को सवाई मानसिंह अस्पताल में बोटोक्स इंजेक्शन आधी कीमत में उपलब्ध है जबकि हृदयप्रदेश की राजधानी जहां गैस त्रासदी के बाद सैकड़ों बच्चे सेरेब्रल पाल्सी का शिकार हुए उनके लिए ऐसी किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं की गई है। जबकि गैस राहत अस्पतालों के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च कर दिये गए। आखिर क्या वजह है कि स्वास्थ्य को लेकर भी देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मापदंड, व्यवस्थाएं एवं सुविधाएं दी जा रही हैं। क्या समूचे देश में एक जैसी स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता नहीं है? हैरत की बात तो ये भी है कि इन बच्चों के लिए कोई सेलेब्रटी भी आगे नहीं आ सकी है जो इनकी समस्या को कारगर तरीके से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठा सके और सरकार एवं शोध में जुटे वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित कर सके। यदि ऐसा हो सकता तो मेरा विश्वास है कि इनका उपचार भी संभव हो गया होता। परंतु लगता है अभी तक इन बच्चों के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया गया है………..!

एक और आश्चर्य तब होता है जब हमें पता चलता है कि फलां वैज्ञानिक रोबोट को संवेदनशील बना रहा है।  फलां वैज्ञानिक के प्रयासों के बाद अब इंसान ने मौत पर विजय प्राप्त कर ली है या अब मानव को बुढ़ापे का सामना नहीं करना पड़ेगा आदि…..आदि। ऐसा कुछ भी करते समय हम यह क्यों भूल जाते हैं कि कई ऐसी जिंदगियां भी हैं जिन्हें हम अपने शोध कार्यों से नवजीवन प्रदान कर सकते हैं मसलन ऐसी आंख क्यों नहीं बना ली जाती कि दृष्टिबाधित नेत्रहीन कहलाने के अभिशाप से मुक्त हो सकें। ऐसा दिमाग क्यों नहीं विकसित कर लिया जाता कि कोई बच्चा मंदबुद्धि या मूक बधिर ना रहे। यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों को बरगलाने और विज्ञान की बेवजह दुहाई देने से भी हमें बाज आना होगा। क्या उम्र पर विजय पा लेना, क्लोन बना लेना, एक कोशिय जीव बना लेने के दावे करना, प्रयोगशाला में डीएनए तैयार कर लेना और हमेशा जीवित रहने जैसे चैंका देने वाले शोध करके विज्ञान का प्रोपेगंडा नहीं किया जा रहा है? क्या ये प्रकृति के विरूद्ध नहीं होगा?

बच्चे किसी भी देश और समाज की पहचान होते हैं। इनकी मजबूती से ही राष्ट्र की मजबूती जुड़ी हुई है। हम कहते जरूर हैं कि बच्चे देश का भविष्य हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि देश को विश्व की महाशक्ति बनाने के लिए तो हम तत्पर हैं पर ‘‘देश के भविष्य’’ की हालत को हम नजरअंदाज कर रहे हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसे हम युद्ध जीतने की बात करें और हथियारों की और से आंखें मूंदे बैठे रहें। आर्थिक समृद्धि के बाद भी बच्चों के जो हालात देश में हैं वे चैंकाने वाले हैं। केवल नियम बना देने भर से काम नहीं चलने वाला है। ठोस योजना बनाना और कड़ाई से उसका पालन कराना जरूरी है। तभी बच्चों की हालत में सुधार होगा। जब बाल मृत्यु दर कम करने, बाल सुधार और कुपोषण से मुक्ति के उपायों जैसे तमाम प्रयास किये जा रहे हों तो ऐसे में सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त (निःशक्त) बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए क्यों कुछ नहीं किया जा रहा है?

सेरेब्रल पाल्सी अंग्रेजी नाम का संक्षिप्त रूप है- सी.पी.। जिसे हिन्दी में मस्तिष्क पक्षाघात कहते हैं। चूंकि यह रोग प्रायः जन्म के समय से रहता है अतः इसे जन्मजात लकवा या शिशु लकवा भी कह सकते हैं। सेरीब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों के शरीर की मांसपेशियां अकड़ी हुई, कड़क होती हैं। हाथ-पैर हिलाने-डुलाने में जकड़न होती है। यह रोग विकसित हो रहे मस्तिष्क में अनेक प्रकार की खराबियों या नुकसान की वजह से होता है।

फिर भी बच्चों को सेरेब्रल पाल्सी से बचाया जा सकता है इनमें कई ऐसे भी बच्चे होते हैं जिन्हें सही प्रशिक्षण और उपचार द्वारा आत्मनिर्भर भी बनाया जा सकता है, परंतु बच्चे सेरेब्रल पाल्सी की चपेट में न आए, इसके लिए न तो कोई जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है और न ही इन बच्चों के ठीक होने के लिए सही मार्गदर्शन की ही कोई व्यवस्था है और तो और लाइलाज रोगों की चपेट में लोग न आयें इसके लिए अब तक किसी तरह की कोई ठोस नीति या योजना का भी अता-पता नहीं है। नतीजा सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे बढ़ रहे हैं जिस कारण एक पूरा परिवार हताशा, निराशा और उदासीनता के गहरे अंधकार में डूबता जा रहा है। ऐसे समय में जब हम जनसंख्या नियंत्रण की बात करते हैं और एक या दो बच्चों तक ही परिवार को सीमित रखने पर जोर देते हैं तब हम ये प्रयास क्यों नहीं करते कि बच्चे कम हों, लेकिन स्वस्थ्य हों। सही इलाज की व्यवस्था न होना और विशेषरूप से महिलाओं का जागरूक न होना भी एक बड़ा कारण है।

यह सचमुच उन परिवारों के लिए बहुत ही घातक और पीड़ादायी स्थिति होती है जब वे परिवार नियोजन को अपनाना चाहते हैं और उनमें पहला बच्चा ही सेरेब्रल पाल्सी से ग्रस्त होता है। उन माता-पिता की दयनीय हालत को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जब लोग एक या दो बच्चे ही रखना चाहते हैं जोर इस बात पर दिया जाना चाहिए कि जो भी बच्चे हों वे पूरी तरह चुस्त-दुरूस्त तंदुरूस्त हों। अस्पतालों में भी ऐसी व्यवस्था करना होगी कि कोई बच्चा सेरेब्रल पाल्सी जैसी निःशक्तता की चपेट में न आने पाये। क्या कभी यह सोचा गया कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की तरफ क्यों भाग रहे हैं? अफसोस कि सेरेब्रल पाल्सी से बच्चों को बचाने के लिए क्या ठोस उपाय होना चाहिए इस पर अभी तक न तो सार्थक पहल की गई और न ही ऐसा चिंतन किया गया कि किसी अच्छे नतीजे पर पहुंचा जा सके। लिहाजा सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चे तो निःशक्तता भरा जीवन जीने को विवश हैं ही उनके माता-पिता भी विपरीत हालात से समझौता करने को मजबूर हैं। निश्चित ही ऐसे माता-पिता की ममता जब-तब रोती होगी।

प्रत्येक माता-पिता की यह प्रबल इच्छा होती है कि उनका बच्चा मजबूत और निरोगी हो, लेकिन जब इन माता-पिता को यह पता चलता है कि उनका बच्चा निःशक्तता की श्रेणी में आता है तो उनकी आत्मा उसे आत्मनिर्भर बनाने के लिए अवश्य ही कचोटती होगी। निःसंदेह ये बच्चे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए तो चुनौती बने ही हुए हैं। भागदौड़ से भरी प्रतिस्पर्धात्मक जिंदगी में इन्हें अपने पैरों पर खड़े करने को आतुर माता-पिता के लिए भी एक कठिन चुनौती पेश कर रहे हैं।

संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने की कोशिशें भी इस रोग की रोकथाम में सहायता नहीं कर पा रही हैं। मिलावटी खाद्य सामग्री, महंगाई और बढ़ते प्रदूषण ने ऐसे माता-पिता की चिंता और मुश्किलों को और बढ़ा दिया है जब वे चाहते हुए भी ऐसे बच्चों को इलाज और पढ़ाई की ओर प्रेरित नहीं कर पाते। क्योंकि अधिकांश माता-पिता को पता ही नहीं होता कि वे इन बच्चों के उपचार के लिए उसे कहां लेकर जायें? कई बच्चों को तो सेरेब्रल पाल्सी रोग विरासत में मिल रहा है। भोपाल इसका जीता जागता उदाहरण है जहां भीषणतम औद्योगिक गैस त्रासदी से पीडि़त माता-पिता की अगली पीढ़ी के कई बच्चे सेरेब्रल पाल्सी से जूझ रहे हैं। अकेले चिंगारी ट्रस्ट में 260 से अधिक विकलांग बच्चे शरणार्थी बने हुए हैं। विशेषज्ञों और कई संस्थाओं द्वारा इसकी पुष्टि कर दिये जाने के बाद भी ऐसे बच्चों के माता-पिता सही उपचार के लिए भटक रहे हैं। या कहें अंधेरे में तीर चलाने का काम कर रहे हैं। गैस त्रासदी के बाद भोपाल में कई अस्पताल बने, लेकिन निःशक्तता के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के लिए कभी कुछ करना तो दूर, सोचा तक नहीं गया। सबसे पीड़ादायक स्थिति उन माता-पिता की है जो एक बच्चा ही रखना चाहते हैं और चाहकर भी दूसरे बच्चे का पालन-पोषण नहीं पा रहे हैं क्योंकि पहले ही बच्चे के उपचार के चक्कर में वे पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। पुनर्वास केन्द्र भी इनके लिए कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। स्पेशल स्कूलों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। स्पेशल स्कूल कई जगह संचालित जरूर हो रहे हैं लेकिन आधी-अधूरी सुविधाओं के साथ वे ऐसे बच्चों के साथ पूरा न्याय करने में खुद को सक्षम नहीं पाते।

एड्स और कैंसर जैसे रोगों पर तो लाखों रूपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन बच्चों के भविष्य से जुड़े सेरेब्रल पाल्सी जैसे रोग पर शोध और सही इलाज की हम अनदेखी कर रहे हैं। आज समय की आवश्यकता है कि हम सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों की संख्या को बढ़ने से रोकें और ये प्रयास करें कि इन बच्चों का सही तरीके से इलाज कैसे हो सकता है। ये कैसे आत्मनिर्भरता की सीढि़यां चढ़ सकते हैं।

निःशक्त बच्चों को आत्मनिर्भर बनाया जाना समय की आवश्यकता है। जिस तेजी से यह समस्या समाज में बढ़ रही है उसी तेजी से इसके इलाज के उपाय करने के लिए डाक्टरों और सरकार को गंभीर व सजग होना जरूरी है। इस संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर एक परिचर्चा की भी जरूरत है ताकि विशेषज्ञ अपने अनुभवों का आदान-प्रदान कर कुछ सार्थक पहल कर सकें। ये बच्चे विशेषकर सेरेब्रल पाल्सी यानी मस्तिष्क पक्षाघात जैसे रोग की चपेट आने वाले बच्चे किसी से कमतर नहीं। जरूरत है सही दिशा में कारगर प्रयास करने की। लेकिन, इच्छाशक्ति में कमी की वजह से इन बच्चों का कल्याण नहीं हो पा रहा है।

आधुनिकता की दुहाई देने और विश्वगुरू बनने भर का राग अलापने से काम नहीं चलने वाला है। प्रत्येक और अंतिम व्यक्ति तक मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाना आवश्यक है। तभी विकास के मायने सार्थक हो सकेंगे। निःशक्त बच्चों के सही इलाज और पुनर्वास की व्यवस्था गांव और कस्बों तक होना चाहिए। क्या बच्चों को वोट देने का अधिकार नहीं, इसलिए इनकी अब तक इतनी उपेक्षा की जा रही है?

दरअसल सेरेब्रल पाल्सी की भी कई श्रेणियां हैं इनमें से अधिकतर ऐसे बच्चे होते हैं जो सही समय पर उचित उपचार और मार्गदर्शन के चलते ठीक हो सकते हैं लेकिन इलाज के अभाव में निःशक्त बच्चों के माता-पिता भटकते रहते हैं। अस्पतालों में निःशक्त बच्चों विशेषकर सेरेबल पाल्सी से पीडि़त बच्चों के उपचार का कहीं कोई ठोस इंतजाम नहीं है।

निःशक्त बच्चों के उद्धार की जब हम बात करते हैं तो केवल निःशक्तों के कल्याण की ही नहीं बल्कि एक पूरे परिवार की भलाई की बात होती है। चांद और मंगल ग्रह पर जाने और रोबोट को संवेदनशील बनाने के दौर में, क्या यह मुमकिन नहीं कि निःशक्तों को सशक्त बनाया जा सके। हम भूल जाते हैं कि लोग अंधविश्वास में न पड़े इसके भी उपाय किये जाने चाहिए, परंतु ऐसा होता नहीं है। एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह कि विज्ञान के इस युग में भी जब सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त बच्चों के ठीक होने का कोई ठोस रास्ता नहीं सूझता तो इन बच्चों के माता-पिता झाड़-फूंक और देवी-देवता जैसी शक्तियों के सामने नतमस्तक होते हैं। अंधविश्वास के मकड़जाल में उलझकर भी सिवाय आंसू बहाने के ये और कुछ भी हासिल नहीं कर पाते। समय, पैसा और श्रम का सदुपयोग करने के बजाय ऐसे बच्चों के माता-पिता परेशान हाल अपनी जिंदगी गुजारते हैं। इस आस-विश्वास में कि एक दिन अवश्य उनका बच्चा अच्छा हो जाएगा। कुछ चमत्कार की उम्मीद में रहते हैं तो कुछ ताकत की दवा में इलाज ढूंढते हैं। जब कुछ हाथ नहीं लगता तो ये गहरे डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं और कई जिंदगियां बिगड़ जाने का खतरा बढ़ जाता है।

सरकार को चाहिए कि ऐसे परिवारों को संरक्षण, उचित मार्गदर्शन देने की पहल की जाए। देश के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक इसके लिए वातावरण तैयार करें, लेकिन अफसोस और खतरनाक स्थिति यह है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी इन बच्चों के लिए आज तक कारगर पहल नहीं की जा सकी है। न तो केन्द्रीय स्तर पर और न ही राज्य स्तर पर कोई ठोस उपाय किये गये। स्वयंसेवी संगठनों की इस गंभीर मुद्दे पर चुप्पी भी विचारणीय है। यह सब स्थितियां कई प्रश्न खड़े करती है। वैश्विक संस्थाओं ने क्या कुछ किया है इससे अधिकतर पढ़े-लिखे लोग ही अनजान हैं तो फिर उनकी बात ही क्या जो कम पढ़े-लिखे हैं या गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं। जब-तब पढ़ने-सुनने में आता है कि फलां तकनीक विकसित कर ली गई है, लेकिन यह आज तक पता नहीं चल सका है कि उस नवविकसित तकनीक का लाभ इन बच्चों को कब तक मिल सकेगा अथवा नहीं मिल पा रहा है तो क्यों? वे कौन से कारण हैं जो हमे इन बच्चों की उपेक्षा के लिए मजबूर कर रहे हैं?

निश्चित ही हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में, कितनी ही वाहवाही लूट लें। कई लाइलाज रोगों के उपचार के दावे कर लें, लेकिन हकीकत यह है कि जब तक हम बच्चों से जुड़े रोगो पर विजय पाने में कामयाब नहीं हो जाते हमारे क्या, महापुरूषों के सपने भी अधूरे ही माने जाएंगे। अत्याधुनिक तकनीक के इस दौर में भी देश में निःशक्त बच्चों के लिए उपचार की उच्च स्तरीय व्यवस्था नहीं है। प्रोजेक्ट मुस्कान और शक्तिमान प्रोजेक्ट भी निःशक्त बच्चों के चेहरे पर सेहत की मुस्कान नहीं ला सके हैं।

सेरीब्रल पाल्सी रोग इन्फेक्शन, रक्तप्रवाह में रोक, चोट, रक्तस्त्राव, जन्म के बाद बच्चे का न रोना, आनुवांशिक या अनेक मामलों में गर्भावस्था के दौरान या उसके बाद हो सकता है। समय से पूर्व प्रसव, गर्भावस्था के समय शिशु के मस्तिष्क में विकृति, अवरोध, माता को कुपोषण या प्रसव के दौरान गड़बड़ी ऐसे प्रमुख कारण हैं जिससे यह रोग बच्चों को हो जाता है। इस रोग में बच्चे का शारीरिक प्रेरकतंत्र विकास धीमा या अवरूद्ध या असामान्य हो जाता है। बावजूद इसके लोगों में विशेषकर शादी-शुदा नवविवाहितों और गर्भवती महिलाओं में जागरूकता की कमी के कारण निःशक्त बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

सेरीब्रल पाल्सी से मिलते-जुलते कई अन्य रोगों से भी प्रदेश के बच्चे ग्रस्त हैं और इनके माता-पिता उचित इलाज के लिए परेशान। लेकिन अभी तक इसका सटीक निदान संभव नहीं हो सका है। ऐसे बच्चों के माता-पिता के लिए यह अनिश्चितता, प्रतीक्षा, चिंन्ता और व्यग्रता से भरी स्थिति होती है। शारीरिक जांच द्वारा इस रोग के बारे में पता चल जाता है। कई अवस्थाओं में इसके ठीक होने की भी संभावना होती है, लेकिन इस रोग पर विजय प्राप्ति के लिए ऐसी कोई दवाई, टानिक या इन्जेक्शन नहीं है जो पूरी तरह रोग को जड़ से मिटा दे। हालांकि अलग-अलग पैथी के कुछ डाक्टर इस रोग के निदान की बात कहते हैं परंतु वे बुद्धि एकाग्रता में लाभ पर ध्यान देते हैं।

प्रमस्तिष्क अंगघात से पीडि़त बच्चों का इलाज अब तक न्यूरो सर्जन ही किया करते हैं। इन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने में फिजियोथैरेपी, स्पीचथैरेपी स्पेशल एजुकेटर्स जैसे उपाय काफी लाभ पहुंचा सकते हैं, लेकिन जानकारी और सुविधा का अभाव इन बच्चों को पराश्रित बनने को विवश करता है। इस दिशा में सामाजिक संगठनों द्वारा भी अभी तक कोई ठोस पहल नहीं की गई है। न तो सी.पी. बच्चों का सही आंकड़ा ही जुटाया जा सका है और न ही इस तरह के बच्चों के उपचार के लिए भटक रहे माता-पिता के लिए कोई हेल्पलाइन की सुविधा ही शुरू की जा सकी है। आमतौर पर ऐसे सभी बच्चों को निःशक्तता की श्रेणी में शामिल कर गिनती कर ली जाती है। सामान्य बच्चों को तो हर कोई पाल लेता है लेकिन निःशक्त बच्चों का पालन-पोषण किसी चुनौती से कम नहीं, इसलिए निःशक्त बच्चों के माता-पिता को प्रोत्साहित किया जाना बहुत जरूरी है। लेकिन इनके लिए कोई भी संगठन ऐसा नहीं है जो पूरी दमदारी से आवाज उठा सके।

लोगों को यह बताना होगा कि कौन-सी पैथी में उन्हें सही उपचार मिल सकेगा। सिर्फ यह कहकर कि सेरेब्रल पाल्सी का कोई इलाज नहीं है या यह लाइलाज रोग है, अनदेखी नहीं की जाना चाहिए क्योंकि यह नौनिहालों से जुड़ी समस्या है इसलिए इसे प्राथमिकता के क्रम में सबसे ऊपर रखना होगा। क्योंकि कई ऐसे रोग भी हैं जिन्हें हम कल तक लाइलाज कहते थे लेकिन आज उनका इलाज कर सैकड़ों लोग सफलता और सम्मान का जीवन व्यतीत कर रहे हैं कितना अच्छा हो कि सेरेब्रल पाल्सी जैसे रोग से पीडि़त बच्चों की जिंदगी में भी सबेरा आए और वे स्वस्थ्य बच्चों की तरह न केवल सभी का मन मोहें बल्कि बड़े होकर विकास में सहभागी बनकर देश सेवा के लिए भी आगे आएं।

निःशक्त बच्चों को नया जीवन देने और उनके चेहरे पर मुस्कान लौटाने के इस गंभीर मामले में अन्य विकसित राज्यों के मुकाबले मध्यप्रदेश एक कदम पीछे रह गया है। यहां बात किसी प्रदेश की प्रतिस्पर्धा की नहीं हो रही है, लेकिन जब हम मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने का दावा करते हैं तब हमें हरेक पहलु पर विचार कर लेना होता है। यह इसलिए भी जरूरी है कि जिस मध्यप्रदेश में सरकार ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए निःशक्तजन पंचायत बुलाई उसी प्रदेश में निःशक्त बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने और उनके माता-पिता को प्रोत्साहित करने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किये जा सके।

हालात तो यह हैं कि कईयों के माता-पिता तो अपने निःशक्त बच्चे का इलाज तो दूर सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं उठा सकते। निःशक्त पंचायत हुई जरूर लेकिन पहले से तय की गई योजनाओं को ही लागू किया गया। इस संबंध में किसी भी स्वयंसेवी संगठन की ओर से निःशक्त बच्चों को सशक्त बनाने के लिए कोई ठोस सुझाव नहीं दिया जाना और भी हैरत में डालने वाला है। निःशक्त बच्चों के हित में क्या कुछ किया जाना चाहिए या क्या कुछ हो सकता है इसपर सुझाव तो दूर की बात है विचार भी नहीं किया जा रहा है। समाज से उपेक्षित इन बच्चों की सरकार द्वारा जो उपेक्षा की जा रही है वह निंदनीय है। निःशक्त पंचायत में सुझाव दिया जाना ही महत्वपूर्ण नहीं था उन सुझावों पर अमल कराने के लिए भी आज तक किसी की ओर से मशाल नहीं उठाई गई। जो हो गया सो हो गया जो कर दिया सो बहुत। आखिर निःशक्त बच्चों की चिंता है किसे? फिर इनकी जरूरत या संख्या भी कितनी है?

ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि वे भी लाइलाज रोग की चपेट में आ सकते हैं रोग जाति, धर्म, या उम्र देखकर नहीं आता। आज जो स्थिति है उसमें लाइलाज रोगी इलाज के लिए इधर-उधर भटकने के अलावा कुछ नहीं पाता! आश्चर्य तो इस बात का है कि इस गंभीर मसले पर आज तक हमारे जागरूक नागरिक  चुप्पी क्यों साधे रहे। जबकि हम आधुनिक विज्ञान की दुहाई देने में कहीं नहीं चूकते! अफसोस कि निःशक्तजन पंचायत के बाद भी इस मसले पर कुछ नहीं किया जा रहा है और न ही सरकार ने इस पर गंभीरता से ही विचार करना जरूरी समझा।

जिन राज्यों की सरकार ने निःशक्तता को गंभीरतापूर्वक चुनौती के रूप में लिया है। वहां थोड़े-बहुत ऐसे कार्य हुए हैं जिनसे आशा की किरण नजर आती है, लेकिन पूरी जानकारी के अभाव में वे भी नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। इस गंभीर मसले पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। ताकि बच्चों की विकलांगता को न सिर्फ रोका जा सके, बल्कि थैरेपी ट्रीटमेंट से सामान्य बच्चों की तरह काबिल भी बनाया जा सके। अब तक देश में वैलूर में ही इस तरह का डायनोस्टिक सेंटर है। छत्तीसगढ़ समाज कल्याण विभाग ने रायपुर के पास माना में सेरेब्रल पाल्सी गेटलैब (एसपीजी) की स्थापना का निर्णय किया। विशेषज्ञों का मानना है कि लैब में मासूमों को नया जीवन मिलेगा। लैब में टेढ़े हाथ-पांव, अंग विच्छेद, मांसपेशियों में कमजोरी वाले बच्चों का वहां इलाज होगा। ऐसे बच्चों का परीक्षण किया जा सकेगा जो नकली अंग लगाकर संतुष्ट हैं। इससे ऐसे बच्चों को पूरी तरह ठीक करने में तो सफलता मिलने की उम्मीद है ही फिजियोथैरेपिस्ट की ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले छात्रों को रोजगार के नए अवसर भी मिल सकेंगे। राष्ट्रीय न्यास अधिनियम 1999 में इस तरह के बच्चों के इलाज का प्रावधान है। विशेषज्ञों का कहना है कि जन्म के समय ब्रेन में खाली जगह रह जाने की वजह से ब्रेन की बीमारी हो जाती है। इस वजह से बच्चों में सेंस और अंग संचालित करने वाले तत्व निष्क्रिय हो जाते हैं। जिन अंगों की मांसपेशियां काम करना बंद कर देती हैं। उन मांसपेशियों की पहचान करने के लिए बच्चों की गतिविधियों की वीडियो शूटिंग की जा सकती है इससे यह पहचाना जा सकेगा कि कौन-सा हिस्सा दिमाग के कंट्रोल के बाहर है, उसका विशेष तकनीक से इलाज किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस ऐसे लैब प्रत्येक राज्य में हों और ऐसे बच्चों की संख्या को देखते हुए वहां स्पेशल लैब निर्मित की जाएं। जहां ट्रीटमेंट के लिए नई मशीनें, बायो इंजीनियर्स के अलावा स्पेशल एजुकेटर्स रहें।

इस संबंध में दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट फार न्यूरो डेवलपमेंटल डिसेबिलिटीज इंटरवेंशनल रिसर्च एक्टिविटीज (इंदिरा) ने भी आशा की किरण जगाई है। वहां एचबीओटी थैरेपी से इलाज के बारे में काफी कुछ किया जा रहा है,, जिसके तहत आटिज्म या सीपी बच्चों को एक चेंबर में बिठाकर आक्सीजन का दबाव बढ़ा दिया जाता है। इससे पानी की मात्रा ज्यादा हो जाती है और दिमाग की सही कोशिकाओं से निकल वह पानी और उसमें मौजूद आक्सीजन मृत कोशिकाओं तक पहुंचकर उन्हें जीवित करती हैं। क्यूबा की सरकार इसे मान्यता दे चुकी है। दृष्टिहीन, श्रवणबाधित, बधिर व मानसिक विकलांग बच्चों में एचबीओटी थैरेपी पर ट्रायल किये जा रहे हैं जिसके अच्छे परिणाम निकले हैं। बाबा फरीद इंस्टीट्यूट आफ स्पेशल चिल्ड्रन्स फरीदकोट पंजाब में चिलेसन परियोजना के तहत उपचार लाभ प्रदान किया जा रहा है। श्री सांई प्रसाद पोलियो एवं स्किन रिसर्च सेंटर भिलाई में भी बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के बेहतर प्रयास किये जा रहे हैं। जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में बोटूलियम टाक्सिन थैरेपी आधी कीमत में उपलब्ध कराई जा रही है।

क्या होना चाहिए:

♦ निःशक्त बच्चों के लिए उच्चस्तरीय चिकित्सा की व्यवस्था बहुत आवश्यक है।

♦ निःशक्तों को प्रत्येक क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान हो। बाबा साहेब की भावना के अनुरूप निःशक्त सबसे ज्यादा निर्बल, निसहाय और शोषित हैं। इनके सशक्तिकरण की ज्यादा जरूरत है।

♦ ऐसे उपायों पर चर्चा हो कि निःशक्त बच्चे नहीं बल्कि सशक्त बच्चे जन्म लें। निःशक्तों के उचित इलाज के लिए शोध की व्यवस्था हो।

♦ सभी स्पेशल स्कूलों में स्पेशलिस्ट और चिकित्सा सुविधा के इंतजाम हों जहां निःशक्तों के लिए स्पेशलिस्ट न हों उन्हें मान्यता न दी जाए।

♦ न्यूरोलाजिस्ट, फिजियोथैरेपिस्ट, स्पीच थैरेपिस्ट, स्पेशल एजुकेशन टीचर, आई स्पेशलिस्ट की व्यवस्था हो।

♦ कलर थैरेपी, नेचुरोपैथी, एक्युप्रेशर, रैकी, योगा, मेडीटेशन, सूर्य नमस्कार की व्यवस्था हो।

♦ सभी प्रकार की सुविधाएं एक स्थान पर मिल सकें इसके लिए एकल खिड़की प्रणाली की सुविधा हो।

♦ निःशक्त बच्चों और उनके परिवार के राशन कार्ड अलग बनाये जाएं और उन्हें अन्नपूर्णा योजना का लाभ दिया जाए।

♦ स्पेशल स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को आर्थिक सहायता का प्रावधान हो।

♦ जिन परिवारों में निःशक्त बच्चे हैं उन्हें तीन बच्चों पर लाड़ली लक्ष्मी योजना का लाभ दिया जाए। या परिवार नियोजन की शर्त को हटाया जाए।

♦ निःशक्त बच्चों का पालन-पोषण कर रहे कर्मचारियों को सरकारी सेवा में प्राथमिकता दी जाए और उन्हें काम के घण्टों में छूट प्रदान की जाए।

♦ स्पेशल खेल अकादमी बने जहां स्पेशल ओलंपिक के खिलाड़ी तैयार किये जाएं।

♦ स्पेशल कला जोन बनाया जाए जहां स्वयंसेवी संस्थाओं को निःस्वार्थ सेवा के लिए प्रेरित किया जा सके।

♦ निःशक्तों के पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था की जाए।

♦ निःशक्तों की शिक्षा, खेल गतिविधियों और उपचार में सहायता।

♦ निःशक्त बच्चों के प्रोत्साहन के लिए पुरस्कार योजना चलाई जाए।

♦ ऐसे वातावरण तैयार किया जाए ताकि निःशक्तों की सहायता के लिए सभी आगे आएं और निःशक्त भी सम्मान, स्वाभिमान से आगे बढ़ते हुए देश की मुख्यधारा में शामिल हो विकास में सहभागी बनें।

आवश्यकता है इन्हें सही दिशा, उचित इलाज और ऐसी योजनाओं की जो इनके जीवन को भी वरदान बना सकें। सेरेब्रल पाल्सी को लेकर चल रही भ्रांतियों को भी दूर करना जरूरी होगा तभी हम इस रोग पर पूरी तरह विजयश्री पाने में सफल हो सकेंगे। इस संबंध में इलाज की विधियों के साथ ही शोध की व्यवस्था भी करना होगी। यदि हमें वाकई शक्तिशाली, समृद्ध, साक्षर और प्रबुद्ध भारत का निर्माण करना है तो निःशक्तता को जड़ से मिटाना ही होगा।

स्पेषल कहे जाने वाले बच्चों के उपचार के लिए यदि वाकई सरकार गंभीर है तो उसे स्पेषल अस्पताल की व्यवस्था करना चाहिए। वर्तमान में न तो स्पेषल बच्चों के लिए कोई स्पेषल अस्पताल है और न ही सामान्यजनों के अस्पताल में स्पेषल बच्चों के इलाज के पुख्ता इंतजाम ही हैं। बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने और उन्हें निःषक्तता के अभिषाप से मुक्ति दिलाने के लिए देष के कोने-कोने में ऐसे स्पेषल अस्पतालों की आवष्यकता है जहां एक ही छत के नीचे निःषक्त बच्चों में सषक्त होने का आत्मविष्वास जगाया जा सके। अफसोस कि आजादी के 61 वर्ष बाद भी ऐसी कोई ठोस व्यवस्था देश में नहीं है। सरकार तमाम उपाय करने के बाद चाह कर भी निःशक्तों के जीवन को वरदान नहीं बना पा रही है। निःशक्त बच्चों के माता-पिता भी इलाज के लिए भटकने को विवश हैं उन्हें यह पता ही नहीं कि वे इलाज के लिए कहां जाएं ताकि उनके बच्चों की जिंदगी आराम से व्यतीत हो सके। कहा भी जाता है कि इंसान यदि चाहे तो क्या कुछ नहीं हो जाता। कुछ भी असंभव नहीं, फिर निःशक्त बच्चों के जीवन में नया सबेरा लाना कब तक संभव हो पाएगा…………….?

भावना श्रीवास्तव

भोपाल मप्र

इंडिया हल्ला बोल

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