National Security Guard : देश के सबसे खतरनाक कमांडो होते हैं ब्लैक कैट कमांडो या एनएसजी कमांडो। एनएसजी को 16 अक्टूबर 1984 में बनाया गया था ताकि देश में होने वाली आतंकी गतिविधियों से निपटा जा सके। नख से लेकर शिख तक काली पोशाक में ढके और पूरे शरीर में कई किस्म के रक्षा-कवचों से लैस एनएसजी के कमांडोज का एक ही नारा है- वन फॉर ऑल, ऑल फॉर वन। हकीकत यही है कि एनएसजी का एक कमांडो आतंकवादियों के पूरे एक गैंग पर भारी पड़ता है। कमांडोज की यह महज मनोवैज्ञानिक छवि नहीं है कि उन्हें देखते ही सुरक्षा का एहसास होने लगता है बल्कि यह वास्तविकता है कि एक कमांडो किसी भी किस्म के खतरे से आखिरकार पार पा लेता है।
पहले जानें कि हिन्दुस्तान में कब, क्यों और कैसे बने कमांडोज: यूं तो भारत में आधुनिक सेनाओं का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन विध्वंसक कमांडोज का इतिहास अभी सवा दो दशक पुराना ही है। विशेष परिस्थितियों के लिए बनायी गयी यह देश की सबसे ताकतवर और जांबाज फोर्स है। राष्टीय सुरक्षा गार्ड की रूपरेखा तय करते समय इजरायल के आत्मघाती कमांडोज को ध्यान में तो रखा ही गया; अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के एलीट कमांडो फोर्सेस को भी ध्यान में रखा गया जिससे कि एनएसजी कमांडो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फोर्स बन सके। आज भारत के एनएसजी कमांडोज की गिनती इजरायल, अमेरिका, रूस और फ्रांस के कमांडो के साथ होती है। एशिया में भारत के एनएसजी कमांडो के मुकाबले कोई दूसरी फोर्स नहीं है।
एनएसजी कमांडोज की सबसे खास बात है त्वरित गति से इनकी कार्रवाई और हर हाल में टारगेट को फिनिश करना। अपने गठन के बाद से आज तक एनएसजी कमांडो दो दर्जन से ज्यादा खतरनाक ऑपरेशनों को अंजाम दे चुके हैं। किसी भी ऑपरेशन में वे आज तक असफल नहीं हुए। एनएसजी का कोई भी ऑपरेशन इतनी तीव्र गति से अंजाम दिया जाता है कि दुश्मन को इस बारे में सोचने का कोई मौका ही नहीं मिलता। यह तो हमारी नौकरशाही है, जो अपनी सदाबहार लेट लतीफी के चलते कमांडोज को कहीं भेजने के मामले में विलंब कर देती है, वरना एनएसजी कमांडोज का कोई मुकाबला नहीं है।
कमांडोज की टेनिंग बहुत ही कठोर होती है। जिस तरह से आईएएस चुनने के लिए पहले प्री-परीक्षा होती है, फिर मेन और अंत में इंटरव्यू। जिसका शायद सबसे बड़ा मकसद यह होता है कि अधिक से अधिक योग्य लोगों का चयन हो। ठीक उसी तरह से कमांडोज फोर्स के लिए भी कई चरणों में चुनाव होता है। सबसे पहले जिन रंगरुटों का कमांडोज के लिए चयन होता है, वह अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वश्रेष्ठ सैनिक होते हैं। इसके बाद भी उनका चयन कई चरणों में गुजर कर होता है। अंत में ये सैनिक टेनिंग के लिए मानेसर पहुंचते हैं तो यह देश के सबसे कीमती और जांबाज सैनिक होते हैं।
जरूरी नहीं है कि टेनिंग सेंटर पहुंचने के बाद भी कोई सैनिक अंतिम रूप से कमांडो बन ही जाए। नब्बे दिन की कठोर टेनिंग के पहले भी एक हफ्ते की ऐसी टेनिंग होती है जिसमें 15-20 फीसदी सैनिक अंतिम दौड़ तक पहुंचने में रह जाते हैं। लेकिन इसके बाद जो सैनिक बचते हैं और अगर उन्होंने नब्बे दिन की टेनिंग कुशलता से पूरी कर ली तो फिर ये सैनिक ऐसे खतरनाक कमांडोज में ढलते हैं जिनकी डिक्शनरी में असफलता जैसा कोई शब्द कभी होता ही नहीं।
एनएसजी कमांडोज की टेनिंग कितनी कठिन होती है, इसको कुछ तथ्यों से समझा जा सकता है। किसी भी चुने हुए रंगरुट को एनएसजी कमांडो बनने से पहले नब्बे दिन की विशेष टेनिंग सफलतापूर्वक पूरी करनी होती है जिसकी शुरुआत में 18 मिनट के भीतर 26 करतब करने होते हैं और 780 मीटर की बाधाओं को पार करना होता है। अगर चुने गये रंगरुट शुरुआत में यह सारा कोर्स बीस से पच्चीस मिनट के भीतर पूरा नहीं करते, तो उन्हें रिजेक्ट कर दिया जाता है। जबकि टेनिंग के बाद इन्हें अधिक से अधिक 18 मिनट के भीतर ये तमाम गतिविधियां निपटानी होती हैं।
अगर किसी कमांडो को ए-श्रेणी हासिल करनी है तो उसे यह पूरा कोर्स नौ मिनट के भीतर पूरा करके दिखाना होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस प्रारंभिक कोर्स में जो बाधाएं होती हैं, वे सब एक जैसी नहीं होतीं। इन बाधाओं में कोई तिरछी होती है तो कोई सीधी। कोई ऊंची होती है तो कोई जमीन से सटी हुई। अलग-अलग तरह की 780 मीटर की इस बाधा को एनएसजी के टेनिंग रंगरूट को अधिकतम 25 मिनट के भीतर और अच्छे कमांडोज में शुमार होने के लिए 9 मिनट के भीतर पूरी करनी होती है।
किसी भी चुने गये कमांडो को नब्बे दिनों की अनिवार्य टेनिंग के दौरान पचास से बासठ हजार जिंदा कारतूसों का अपनी फायर प्रैक्टिस में प्रयोग करना होता है। जबकि किसी सामान्य सैनिक की पूरी जिंदगी में भी इतनी फायर प्रैक्टिस नहीं होती। कई बार तो एक दिन में ही एक रंगरूट को दो से तीन हजार फायर करनी होती है। आम सैनिक जहां फायर प्रैक्टिस के लिए पारंपरिक चांदमारी का इस्तेमाल करते हैं, वहीं एनएसजी कमांडोज की फायर प्रैक्टिस बहुत ही जटिल और बहुत ही उन्नत होती है।
कमांडोज को पच्चीस सेकेंड के भीतर चौदह अलग-अलग टारगेट हिट करने होते हैं और ये चौदह टारगेट सारे के सारे अलग-अलग तरीके के हो सकते हैं। इन सभी टारगेट को एक साथ हिट करने में कमांडोज को ढाई से तीन सेकेंड का ही समय अधिकतम मिलता है। अगर कोई कमांडो एक प्रयास में दस से कम टारगेट हिट कर पाता है तो उसे उतनी ही बार और ज्यादा फायर प्रैक्टिस करनी होती है, जब तक वह न्यूनतम टारगेट न हिट कर ले।
कमांडोज की मानसिक टेनिंग भी बेहद सख्त होती है। उनमें कूट-कूट कर देशभक्ति का जज्बा भरा जाता है। अपने कर्तव्य के प्रति ऊंचे मानदंड रखने की लगन भरी जाती है। दुश्मन पर हर स्थिति में विजय प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा भरी जाती है और अंत में अपने कर्तव्य के प्रति हर हाल में ईमानदार बने रहने की मानसिक टेनिंग दी जाती है। इस दौरान इन कमांडोज को बाहरी दुनिया से आमतौर पर बिल्कुल काट कर रखा जाता है। न उन्हें अपने घर से संपर्क रखने की इजाजत होती है और न ही उन सैन्य संगठनों से, जहां से वे आये होते हैं।
यहां से आते हैं कमांडो़ज: एनएसजी का गठन भारत की विभिन्न फोर्सेज से विशिष्ट जवानों को छांटकर किया जाता है। एनएसजी में 53 प्रतिशत कमांडो सेना से आते हैं जबकि 47 प्रतिशत कमांडो चार पैरा मिलिटी फोर्सेज- सीआरपीएफ, आईटीबीपी, रैपिड एक्शन फोर्स और बीएसएफ से आते हैं। इन कमांडोज की अधिकतम कार्यसेवा पांच साल तक होती है। पांच साल भी सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत को ही रखा जाता है, शेष को तीन साल के बाद ही उनकी मूल सेनाओं में वापस भेज दिया जाता है।
एनएसजी की सबसे बड़ी ताकत है, इसका गहन प्रशिक्षण। किसी साधारण सैनिक को अपनी बीस साल की समूची सर्विस में जितनी टेनिंग से नहीं गुजरना पड़ता है, उससे कई गुना ज्यादा किसी राष्टीय सुरक्षा गार्ड के कमांडो को अपनी तीन साल की सर्विस के दौरान ही गुजरना पड़ता है। एनएसजी में भी दो हिस्से हैं- एक है-एसएजी यानी स्पेशल एक्शन ग्रुप और दूसरा है एसआरजी यानी स्पेशल रेंजर्स ग्रुप।
एसएजी में मूलतः भारतीय सेनाओं से चुने गये सैनिकों को रखा जाता है और एसआरजी में भारत के विभिन्न अर्द्घ सैन्य बलों से चुने गये सैनिकों को लिया जाता है। दोनों के काम में भी थोड़ा-बहुत फर्क है। हालांकि दोनों के लिए टेनिंग एक ही होती है और मौका पड़ने पर दोनों एक-दूसरे के विकल्प के तौर पर काम करते हैं। लेकिन आमतौर पर एसएजी को उन तमाम खतरनाक मुहिमों पर भेजा जाता है, जिसमें मौके पर ही किसी कार्रवाई को अंजाम देना होता है। इस तरह की कार्रवाइयों के केन्द्र में आमतौर पर आतंकवादी वारदातें होती हैं।
दूसरी तरफ एसआरजी की कार्रवाइयों में वीवीआईपी लोगों की सुरक्षा को रखा जाता है। इस समय देश में कई दर्जन अति महत्वपूर्ण लोग हैं, जिनकी सुरक्षा में एनएसजी के कमांडो लगाये गये हैं। एनएसजी में शामिल होने वाले निरीक्षक स्तर के अधिकारियों की अधिकतम उम्र 35 साल होती है जबकि आमतौर पर कार्रवाई करने वाले कमांडोज की उम्र इससे काफी कम होती है। एनएसजी का हेड र्क्वार्टर दिल्ली से 50 किलोमीटर दूर हरियाणा के मानेसर में है।
ऐसे बनी कमांडो-फोर्स: 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को आतंकवादियों की कैद से मुक्त कराने के लिए जब भारतीय सेना ने कार्रवाई की, तो वह कार्रवाई सफल तो रही, लेकिन इस कार्रवाई में काफी सारे सैनिक शहीद हुए और इससे भी बड़ी बात यह हुई कि अमृतसर के ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर को भारी नुकसान हुआ। इस ऑपरेशन के बाद ही यह तय किया गया कि देश में एक ऐसी फोर्स होनी चाहिए, जो खतरनाक और संवेदनशील मौकों पर सफाई से कार्रवाई कर सके।
चूंकि पिछली सदी के अस्सी के दशक में पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था, इसलिए तात्कालिक रूप से इस ‘इलीट फोर्स’ को लेकर जो कल्पना की गयी, वह यही थी कि यह नयी और ताकतवर फोर्स आतंकवाद से निपटने में सिद्धहस्त होनी चाहिए। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने श्री गांधी को एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें इजरायल में मौजूद विशिष्ट कमांडो फोर्स की तर्ज पर भारत में भी कमांडो फोर्स के गठन की बात कही गयी थी। इसी रिपोर्ट के आधार पर 1984 के अंत में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राष्टीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के गठन की घोषणा कर दी। हालांकि तथ्यात्मक रूप से इसका गठन एनएसजी एक्ट-1985 के तहत किया गया।