अपने देश को आजादी दिलाने के लिए कई स्त्रियों ने कडा संघर्ष किया और उनमें सरोजनी नायडू का अपना अलग ही स्थान है। वह एक विदुषी और बहुआयामी व्यक्तित्व वाली स्वतंत्रता सेनानी थीं। उनकी आवाज बेहद मधुर थी, इसी वजह से वह पूरे विश्व में भारत कोकिला के नाम से विख्यात हुई।
कविता और क्रांति का संगम
सरोजनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में हुआ था। इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान तथा मां कवयित्री थीं। बचपन में वह बेहद मेधावी छात्रा थीं। उनकी बुद्धिमत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही वह बहुत अच्छे अंकों के साथ 12वीं की परीक्षा पास कर चुकी थीं। 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने लेडी आफ दी लेक शीर्षक कविता की रचना की। वह 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गई और पढाई के साथ कविताएं भी लिखती रहीं। 1905 में गोल्डेन थ्रैशोल्ड शीर्षक से उनकी कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ था। इसके बाद उनके दूसरे और तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग्स ने उन्हें सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
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देशप्रेम की धुन
1898 में सरोजिनी डॉ.गोविंदराजुलू नायडू की जीवनसंगिनी बनीं। 1914 में इंग्लैंड में वे पहली बार गांधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गई। एक कुशल सेनापति की भांति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय आंदोलन, समाज सुधार और कांग्रेस पार्टी के संगठन में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और कई बार जेल भी गई। किसी भी तरह की मुश्किल की परवाह छोडकर वह दिन-रात देशसेवा में जुटी रहती थीं। वह गांव-गांव घूमकर लोगों के बीच देशप्रेम का अलख जगाते हुए लोगों को देश के प्रति उनके कर्तव्य की याद दिलाती थीं। उनके ओजस्वी भाषण जनता के हृदय को झकझोर देते थे। उनका भाषण सुनकर लोग देश पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो जाते थे। वह कई भाषाओं की प्रकांड विद्वान थीं। वह उपस्थित जनसमूह की समझ के अनुरूप अंग्रेजी, हिंदी, बंगला व गुजराती में भाषण देती थीं। लंदन की भी एक जनसभा में इन्होंने अपने भाषण से वहां उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।
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अविस्मरणीय योगदान
अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण 1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की वे अध्यक्ष बनीं और 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गई। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनीं। इस तरह उन्हें देश की पहली महिला राज्यपाल होने का गौरव प्राप्त हुआ। उन्होंने अपना सारा जीवन देश को समर्पित कर दिया था। 2 मार्च 1949 को उनका स्वर्गवास हो गया, लेकिन देश की आजादी में उनके अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
भारत में स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व ही महिला स्वशक्तिकरण की बात चल पड़ी थी। यह वह समय था जब सरोजनी नायडू एक तरफ तो स्वतंत्रता संग्राम का ध्वज उठाकर देश के खातिर मर मिटने के लिये निकल पड़ी थीं तो दूसरी तरफ कांग्रेस की प्रमुख बनकर महिला सशक्तिकरण को उस दौर में एक नयी आवाज दे रही थीं। सरोजनी नायडू को 1925 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो महात्मा गांधी ने इसे भारतीय महिला का गौरव बताया था और स्वयं सरोजनी नायडू का कहना था कि अपने विशिष्ट सेवकों में मुझे मुख्य स्थान के लिये चुनकर आप लोगों ने कोई मिसाल नहीं रखी है। आप तो केवल पुरानी परम्परा की ओर ही लौटे हैं और भारतीय नारी को फिर से उसके उस पुरातन स्थान में ला खड़ा किया है जहां वह कभी थी।
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अपनी इस सोच को विस्तार देते हुए उनका यह भी मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं रही बल्कि वह हमेशा से बराबर की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपनी इस सोच के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास भरने का काम तो किया ही बल्कि पितृसत्ता को भी स्त्री समाज के प्रति अपना नजरिया बदलने के लिये प्रेरित किया। आगे चलकर वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख नेत्री के रूप में पहचानी गयीं। भय को वे देशद्रोह से कम नहीं मानती थीं। सरोजिनी नायडू की राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में आरंभ होती है। 1879 के फरवरी महीने की 13 तारीख को हैदराबाद में जन्मी सरोजिनी नायडू को उनके पिता गणितज्ञ बनाना चाहते थे किन्तु उनकी रूचि उसमें बिलकुल भी नहीं थी। वे शब्दों की जादूगरनी थीं और उनका मन उसी में रमता था।
पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान तथा मां कवयित्री थीं बांग्ला में लिखती थीं। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 12 वर्ष की अल्पायु में ही 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की ओर 13 वर्ष की आयु मेें लेडी आफ दी लेक नामक कविता रची। वे 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैड गई और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएं भी लिखती रहीं। गोल्डन थै्रशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड आफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और अंग्रेजी साहित्य जगत एक स्थापित कवयित्री मान चुका था परन्तु वे अपने को कवि नहीं मानती थीं। 1902 में कलकत्ता में उनका ओजस्वी भाषण हुआ जिससे गोपलकृष्ण गोखले प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनीजी को राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन दिया ।
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इसके बाद सरोजिनी जी को महात्मा गांधी का सानिध्य मिला। हालंकि गांधीजी से उनकी मुलाकात कई वर्ष बाद 1914 में लंदन में हुई। गांधीजी के सानिध्य में रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता दिनों दिन बढ़ती गयी। वे गांधीजी से बेहद प्रभावित थीं। उनकी सक्रियता का लाभ देश की उन असंख्य महिलाओं को भी मिला जिनमें आत्मविश्वास लौट आया और वे भी स्वाधीनता आंदोलन के साथ ही समाज के अन्य क्षेत्रों में सक्रिय हो गईं। 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। सरोजनी नायडू लगभग तेइस वर्षों तक भारतीय कांग्रेस की ध्वजवाहक रहीं। इन वर्षों में उन्होंने न केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूती दी बल्कि नारी उत्थान का भी अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई का एक सशक्त हथियार बनाया।
उनका मानना था कि गुलामी से मुक्ति के लिए महिलाओं की भागीदरी के बिना अधूरी है। वे राष्ट्रीय आंदोलनों की सभी प्रमुख समितियों की सदस्य रहीं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में अनेक विश्व सम्मेलनों में अंगे्रजों की दासता से मुक्ति के भारतीय और कांग्रेस के पक्ष को सफलता से विश्व जनमत के सामने रखा। एक कुशल सेनापति की भांति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र में दिया फिर वह सत्याग्रह हो या संगठन की बात। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और अनेक बार जेल भी गयीं। संकटों से न घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भांति गांव-गांव घूमकर ये देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती रहीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को झकझोर देते थे और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे।
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वे बहुभाषाविद थी और क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंगे्रजी,हिन्दी, बंगला या गुजराती में देती थीं। लंदन की सभा में अंगे्रजी में बोलकर इन्होंने वहां उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। वे सच्ची देशभक्त थीं और इसका परिचय भी वे समय-समय पर देती रही हैं। एक ऐसी ही घटना है जब जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी ”नाइटहुडÓÓ की उपाधि सरकार को लौटा दी थी तो सरोजिनी नायडू ने भी सामाजिक सेवाओं के लिये मिली उपाधि ”कैंसर-ए-हिन्द वापस कर दिया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 15 अगस्त 1947 को सरोजिनी नायडू को देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तरप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। हालांकि यह भी सच है कि वे इस तरह का कोई पद नहीं लेना चाहती थीं किन्तु पंडित जवाहरलाल नेहरू के आग्रह को वे ठुकरा नहीं सकीं।
अनेक बार कांगे्रस की भीतर उठे विवाद को हल करने में भी सरोजिनीजी ने संकटमोचक की भूमिका निभायी थी। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र और गांधीजी की इस प्रिय शिष्या ने अपना सारा जीवन देश के लिए अर्पण कर दिया। 2 मार्च 1949 को उनका देहांत हुआ । 13 फरवरी 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का एक डाक टिकट भी जारी किया। इस महान देशभक्त को देश ने भी पूरा-पूरा सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू के जीवन के बारे में लिखते समय उन्हें विशेषरूप से भारत कोकिला, राष्ट्रीय नेता और नारी मुक्ति की समर्थक के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है।
युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
‘श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।’
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।
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