पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र, (1903-1987) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार थे। उन पर पाश्चातय नाटककार इन्सन, शा, मैटरलिंक आदि का खासा प्रभाव था। लेकिन फिर भी उनके एकांकियों में भारत की आत्मा बसती थी। पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी ने प्रचुर मात्रा में गद्य तथा पद्य दोनो मे ही साहित्य स्रजन किया है। मौलिक स्रजन से लेकर अनुवाद तक उन्होंने सोद्देश्य लेखन किया है। उन्होने लगभग 25 नाटकों ओर 100 एकांकियो का सृजन किया है। अशोक वन, प्रलय के मंच पर, कावेरी में कमल, बलहीन, नारी का रंग, स्वर्ग से विप्लव, भगवान मनु आदि उनके प्रख्यात एकांकी संग्रह हैं।
डॉ॰ रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण लाल, पं0 उदयशंकर भट्ट, तथा उपेन्द्र नाथ अश्क आधुनिक युग के प्रमुख एकांकीकारों में गिने जाते हैं परन्तु पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र का स्वर इन सबसे अलग रहा हे। हिन्दी के एकांकीकारों में उनका अपना एक विशेष स्थान है।
1 जीवनी
2 परिचय
3 कृतियाँ
3.1 नाटक
3.2 अन्य रचनाएँ
4 बाहरी कड़ियाँ
जीवनी
पण्डित लक्ष्मीनारायण मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के बस्ती नामक गाँव में हुआ था। उनके नाटक सन् १९३० और सन् १९५० के बीच बहुत लोकप्रिय हुए थे और विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं नवसिखुओं द्वारा प्राय: मंचित किये जाते थे।
परिचय
मिश्र जी के एकांकी विषय वस्तु की दृष्टि से पौराणिक, ऐतिहासिक, तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि लिए हुए हैं। उनके एकांकियों में पात्र कम संख्या में रहते हैं। वे उनका चरित्रांकन इस प्रकार करते हैं कि वे लेखक के मानसपुत्र न लग कर जीते-जागते और अपने निजी जीवन को जीते हुए लगते हैं। मिश्र जी की सम्वादयोजना सार्थक, आकर्षक, सरल, संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी तथा नाटकीय गुणों से परिपूर्ण होती है। जिसमें तार्किकता और वाग्विदग्धता तो देखते ही बनती है, उदाहरण के लिए ‘‘बलहीन’’ का सम्वाद देखें-
देवकुमार- तब तुमने स्त्री से विवाह किया है?
रजनी- संसार में धोखा बहुत होता है।
देवकुमार किसने रख दिया तुम्हारा नाम?
देवकुमारी रखा होता तो भ्रम में न पड़ती।
पं0 लक्ष्मीनारायण मिश्र जी के एकांकी सहज हैं और रंग-मंचीय परम्पराओं की कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनकी सफलता इस बात में है कि वे अपने उद्देश्य की पूर्ति उपदेशक बन कर नही अपितु कलाकार के रूप में करते हैं।डॉ॰ रामचन्द्र महेन्द्र के शब्दों में- ‘‘मिश्र जी का मूल स्रोत यही अतीत भारतीय नाट्यशास्त्र है। उनका यथातथ्यवाद, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि और और यथार्थवाद संस्कृत नादकों से ही मिले हैं। वे अन्तरंग में सदैव भारतीय है। उन्होंने भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप परिस्थितियों तथा कर्म व्यापारों का गठन किया है। प्राचीनता से भारतीय संस्कार लेकर नवीनता की चेतना उनमें प्रकट हुई है। फिर, यदि वे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक या विचारकों के समकक्ष आ जाते हैं, तो हमें उनकी यह मौलिकता माननी चाहिए, अनुकरण नही।’’