आया हूँ। तुम इस युद्ध से पीछे नही हट सकते हो। अधर्म कोई भी करे, वह सजा का भागी है।
अर्जुन बोले- मेरे पितामह अधर्मी नहीं हैं। दुर्योधन अधर्मी है।
श्री कृष्ण- तो तुम दुर्योधन का वध करो।
अर्जुन- मार्ग में पितामह खड़े हैं।
श्री कृष्ण- पितामह नहीं… भीष्म! भीष्म का वध किए बिना यदि दुर्योधन नहीं मारा जा सकता तो पहले किसे दण्डित होना चाहिए?
श्री कृष्ण मुस्कुराए, बोले जीवन का सत्य यही है धनंजय। जब अधर्म के विरूद्व शस्त्र उठाओगे तो सबसे पहले तुम्हारे परिजन ही तुम्हारा हाथ पकड़ेंगे। अर्जुन, तुम मनुष्य की दृष्टि से देख रहे हो इसलिए मोह में पड़े हो। तुम सम्पूर्ण की दृष्टि से देखो, ईश्वर की दृष्टि से देखो। ईश्वर से जो सम्बन्ध तुम्हारा है, वही सम्बन्ध पितामह का भी है। तुम दोनों ईश्वर के हो। प्रकृति ईश्वर की शक्ति है। प्रकृति भेद या व्यक्ति सम्बन्ध नहीं रखती।
अर्जुन! मोह के कारण तुम्हें अपना धर्म नही दिख रहा है। तुम्हारी दृष्टि में भेद आ गया है। आसक्ति किसी को सत्य के दर्शन नहीं करने देती। तुम्हें स्वधर्म के लिए आसक्ति को त्यागना होगा।
अर्जुन बोले- मैं आपका शिष्य हूँ केशव। किंतु मैं पितामह का पौत्र भी हूँ। उनके प्रति भी मेरा धर्म है।
अर्जुन ने देखा श्री कृष्ण के चेहरे का तेज सूर्य से अधिक था जो उसके लिए असह्य होता जा रहा था। आकाश के सूर्य से अधिक प्रखर था श्री कृष्ण का तेज।
कृष्ण की वाणी जैसे मेघों की गर्जना सी लग रही थी। बोले- अर्जुन! ऐसा कोई काल नहीं था जब तुम नहीं थे या मैं नहीं था। तुम मोह के कारण अपना स्वरूप भूल गए हो।
श्री कृष्ण का स्वरूप बड़ा विशाल लग रहा था। उनका अद्भुत रूप देख कर अर्जुन विस्मित थे। वे अपलक भगवान् को निहारते ही रहे, अपनी सुध भूल गए।
भगवान् बोले- अर्जुन तुम्हे विस्मृत हो गया है पर मुझे याद है। इस शरीर में मैं ही आत्मा के रूप में स्थित हूँ। समस्त भोग भोगते हुए भी मैं मुक्त हूँ। मैं यह शरीर नही हूँ।
अर्जुन ने डरते हुए पूछा- मैं कौन हूँ केशव?
कृष्ण बोले -तुम भी वही हो जो मैं हूँ। तुम पर मोह का आवरण है। तुम अपना आत्मभाव भूल गए हो इसलिए तुम अपना स्वरूप नहीं देख पा रहे हो। तुम या मैं नहीं, यह युद्ध प्रकृति करवा रही है। प्रकृति ही प्रकृति के विरुद्ध लड़ रही है। कोई किसी को नहीं