अन्तर्चक्षुओं के समक्ष यों नाचेंगे जैसे यह धरती और आसमान। भगवान व्यास के इस आशीर्वाद के परिणामस्वरूप ही गीता का जो उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया उसे संजय ने हस्तिनापुर के राजसदन में बैठे-बैठे सुना और फिर उसे ज्यों का त्यों धृतराष्ट्र के सम्मुख रखता गया। अवश्य ही गीता का यह उपदेश श्रीकृष्ण ने उस समय की बोलचाल की भाषा, संस्कृत गद्य में दिया होगा जिसे कालान्तर में श्लोकबद्ध कर लिया गया। लेकिन श्रीकृष्ण के मुख से निकले शब्द पद्यबद्ध करने में भी ज्यों के त्यों रक्खे गए हैं, ऐसा आस्तिकजन का विश्वास है।
लोग शंका करते हैं – युद्धभूमि में गीता सुनाने के लिए इतना समय मिल पाना सहज संभव है क्या?
ऐसे प्रश्न उस समय की वास्तविक स्थिति न जानने के कारण ही पूछे जाते हैं, अत: तत्संबंध में निम्न तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है। गीता में कुल सात सौ श्लोक हैं। ठीक ढंग से गीता का पाठ करने में लगभग एक घण्टे का समय लगता है। बोलचाल की भाषा जब संस्कृत रही होगी तब तो उसे पूरा करने में इससे भी कहीं कम समय लगा होगा।
दूसरे, जब गीता का उपदेश किया गया उस समय युद्ध नहीं चल रहा था – वह मात्र प्रारंभ होने की स्थिति में था। पाण्डवपक्ष की ओर से अर्जुन द्वारा अपना घनुष रख देने के बाद कोई दूसरा व्यक्ति युद्ध का प्रारंभ नहीं कर सकता था, और कौरवों की ओर से उसकी शुरुआत करनी थी स्वयं पितामह भीष्म को। अर्जुन के धनुष उठाये बिना वह धर्मज्ञ अपनी ओर से कोई आघात कर नहीं सकते थे। अत: यदि एक घण्टे के स्थान पर दस घण्टे भी गीता के उपदेश में लगते तो भय या आशंका की कोई बात नहीं थी।
इसके अतिरिक्त यह भी जानने की आवश्यकता है कि गीता का उपदेश पूर्ण होने के बाद भी तत्काल युद्ध का प्रारंभ नहीं हुआ था। उपदेशोपरान्त युधिष्ठिर अपने कवच और शस्त्रों का त्याग कर कौरवदल की ओर गए थे और वहाँ पहुँचने के बाद भीष्म, द्रोण तथा शल्य जैसे अपने गुरुजनों से उन्हों ने युद्ध में प्रवृत्त होने की अनुमति माँगी थी। अपनी सेनाभूमि में वापस पहुचने के लिए युधिष्ठिर को भी घण्टा-आध घण्टे का समय तो लगा ही होगा।, और उसके बाद ही औपचारिक रूप से युद्ध की शुरुआत हो पाई थी।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में, शस्त्रसम्पन्न सैन्यदलों के मध्य नन्दिघोष नामक रथ पर आरूढ़ होकर किया था, गीता का अर्थ करते समय इस पृष्ठभूमि का स्मरण रखना आवश्यक है।