कलियुग के प्रारंभ होने के मात्र तीस वर्ष पहले, मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन, कुरुक्षेत्र के मैदान में, अर्जुन के नन्दिघोष नामक रथ पर सारथी के स्थान पर बैठ कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश किया था। इसी तिथि को प्रतिवर्ष गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। कलियुग का प्रारंभ परीक्षित के राज्याभिशेष से माना जाता है, और महाभारत युद्ध के पश्चात तीस वर्ष राज्य करने के बाद युधिष्ठिर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राजतिलक किया था।
उस समय दिन का प्रथम प्रहर था। चूँकि सभी योद्धा स्नान-ध्यानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होने के पश्चात ही रणक्षेत्र में प्रवेश करते थे और युद्ध का प्रथम दिवस होने के कारण उस दिन व्यूह-रचना में भी कुछ समय लगा ही होगा, अत: कहा जा सकता है कि गीता के उपदेश का समय प्रात:काल आठ से नौ बजे के बीच होना चाहिए। अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ने ही उस समय कवच धारण कर रखे थे। दोनों के मस्तक पर शिरस्त्राण भूषित थे। अर्जुन के रथ पर वानर-ध्वज उड़ रहा था और उस रथ में हरे रंग के चार घोड़े जूते थे। गंधर्वराज चित्ररथ ने पार्थ की मैत्री निभाने के लिए अपने इन घोड़ों को स्नेहपूर्वक उन्हें प्रदान किया था। आजकल पृथ्वी पर उस रंग के अश्व नहीं पाए जाते। धनंजय के रथ के यह घोड़े ऊँचे, दुबले और अत्यंत तीव्रवेगी थे।
सबसे पहले कौरव सेना के महानायक पितामह भीष्म ने ही शंखनाद किया था। यह कौरव-सेना को उत्तेजित करने के लिए ही नहीं बल्कि विपक्ष को इस बात की सूचना देने के लिए भी था कि अब वह लोग युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हैं। सेनापति के शंखनाद के साथ ही अन्यान्य सेनानायकों ने भी शंखध्वनि की और रणवाद्य बज उठे। इसका प्रत्युत्तर दिया विजय और मधुसूदन ने अपने शंख प्रतिध्वनित कर। पाण्डवदल की ओर से की गई इस शंखध्वनि और रणवाद्यों के निनाद ने कौरवों की ओर से आती हुई आवाज़ों को सहज ही दबा लिया। इसी समय अर्जुन ने अपने सारथी बने माधव से कहा, ”मेरे रथ को दोनों दलों के मध्य ले चलें। मैं एक बार देखना चाहता हूँ कि कुटिल दुर्योद्धन की ओर से