क्या सोचा…. था कि तुम ऐसा करोगी

वह दिन………

क्या सोचा…. था कि तुम ऐसा करोगी…

खुदपर भरोसा…न था कि ऐसा करोगी…..

सोचा मगर…बहुत दूर चला गया…कि

देखा पलट के तो जमी गुजर गयी थी…

सवाल आपके रोकदेते थे जवाब मेरे

क्या यही पैगाम था उन सवालो का….

हमे इंतजार है उन सवालो का

जो छिप-छिप कर करती थी तुम…

आज कसमो की अहमियत भी ना रही…

झूठे साबित हुऐ सारे वादे…..

क्या सोचा….था कि तुम ऐसा करोगी….

भूल कर भी भूलाने की कोशिश किया

उन लम्हो को बिताने की कोशिश किया

अफसोश खुद पर हुआ शायद….

कोई गुस्ताखी हुई जो तू दूर चली साथ मै ना रहा

कैसे देखे खुद आईना…

सवाल जर्रे-जर्रे में भरा है

जवाब देने की कोशिश करता…

गुनाहो की बेडियो में खुद को जड़ा पाता

यही गुजारिश है तोडने वालो से कसम न खाना

वादे न करना….इनकी अहमियत से न खेलना….

क्या सोचा…. था कि तुम ऐसा करो…गी…

“क्या सोचा था ऐसा होगा पर वो मेरे जैसा होगा

खेल खिलौने से खेला हमने तु्मने भी तो खेला होगा

अपना खेला सभल-सभल कर मेरा तुने क्यो तोड़ा

आज हमे भी समझा दो यह कैसे तुने कर ड़ाला

भूल हुई थी या सोची समझी साजिश थी

पर थी यह साजिश तो इसको कभी ना दोहराना

भूल हुई है तो चलता है पर इसको कभी आदत में ना लाना

आज बिगाड़ा तुने मेरा खेल खिलौना

कल को हमसे अपने रिस्ते ना बिगड़ ना

यह आदत है अपनी कमजोरी नही

समहलते रहना समहल कर चलना

यह अपनी आदत है

इसको न नजर अंदाज करना यही

यही अपनी चाहत है”।।।।।।

दीपक पाण्डेय

इडिया हल्ला बोल

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